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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ५

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शार्दूल-विक्रीडित

व्याली-सी विष से भरी विषमता आपूरिता क्रोधाना।
अन्धाकधुन्धा-परायणा कुटिलता की मूर्ति व्याघ्रानना।
है अत्यन्त कठोर उग्र अधामा, है लोक-संहारिणी।
है दुर्दान्त नितान्त वज्र-हृदया स्वार्थान्धाता-दानवी॥1॥

होती है मधुरा सुधा-सरसता से सिंचिता शोभना।
नाना केलि-निकेतना सुवसना शांता मनोज्ञा महा।
लीला लोल तरंगिता उदधिक-सी चिन्तांकिता आकुला।
है सांसारिकता महान गहना मोहान्धाता-आवृता॥2॥

कांक्षा है अनुरक्त भक्त जन को सद्भक्ति या मुक्ति की।
ज्ञानी को बहु ज्ञान की, विबुध को लोकोत्तारा बुध्दि की।
त्यागी को अनुभूत त्याग-सुख की, योगीन्द्र को सिध्दि की।
है सांसारिकता न स्वार्थ-रहिता, निस्स्वार्थता है कहाँ॥3॥

मैं हूँ ब्रह्म-समान व्याप्त सबमें, हूँ सर्वलोकेश्वरी।
हूँ अद्भुत समस्त भूति खनि, हूँ सर्वार्थ की साधिकका।
हूँ सारी वसुधा-विभूति-जननी, हूँ शक्ति-संचारिणी।
है सांसारिका पुकार कहती, मैं स्वार्थसर्वस्व हूँ॥4॥

होती है सुख-कामनातिप्रबला है लालसा-लोलुपा।
प्यारे हैं भव-भोग, मुग्ध करती हैं भूयसी भूतियाँ।
तो भी है वह प्रेम, प्रेम? जिसमें है इन्द्रियासक्तता।
तो क्या हैं हितपूर्तियाँ यदि बनीं वे स्वार्थ की मूर्तियाँ॥5॥

सा धर्म-समाज भूमितल के जो दंभसर्वस्व हैं।
पाते हैं जिनमें महाविषमता जो द्वेष-उन्मेष हैं।
जो हैं गौरव गर्व ईति जिनमें है वृत्तिक-उन्मत्ताता।
क्या वे हैं परमार्थ-मूर्ति जिनमें स्वार्थान्धाता है भरी॥6॥

उत्फुल्ला सरसा नितान्त मधुरा शान्ता मनोज्ञा महा।
नाना भाव-निकेतना विविधता आधारिता व्यंजिता।
हो अम्भोधिक-समान वैभवमयी हो व्योम-सी विस्तृता।
है सांसारिकता विहार करती सर्वत्र संसार में॥7॥

बातें हों मन की मिले सफलता सम्पत्तिक स्वायत्ता हो।
पूरी हो प्रिय कामना, सुगमता से सिध्दियाँ प्राप्त हों।
बाधाएँ सब काल बाधिकत बनें, हो वैरिता वंचिता।
ए हैं मानव की नितान्त रुचिरा स्वाभाविकी वृत्तिकयाँ॥8॥

क्या खाये-पहने क स्वहित क्यों मुद्रा कमाये न जो।
जायेगा लुट जो न बुध्दि-बल से टाले बलाएँ टलीं।
होगा रक्षित भी न ईति अथवा दुर्नीतियों से दबे।
संसारी फिर क्यों न जन्म जग में ले स्वार्थ-सर्वस्व हो॥9॥

वे हैं धान्य परार्थ त्याग करते जो लोग हैं स्वार्थ का।
ऐसे हैं कितने, परन्तु उनका तो त्याग ही स्वार्थ है।
होता है परमार्थ पूत उसमें है भूरि स्वर्गीयता।
तो भी क्या परमार्थ सार्थक नहीं जो अर्थ है स्वार्थ में॥10॥

कोई है जग में भला न, यह तो कोई कहेगा नहीं।
संसारी फिर भी प्रमत्त रहता है स्वार्थ की सिध्दि में।
कच्चे काम पड़े सगे बन गये, सच्चे न सच्चे रहे।
देखा जो दृग खोल बोल सुन के तो ढोल में पोल थी॥11॥

हैं ऐसे जन भी हुए जगत में जो त्याग-सर्वस्व थे।
देवों से अति पूत दिव्य जिनकी हैं मानवी कीत्तिकयाँ।
जाँचा तो उनकी असंख्य जन में संख्या गिनी ही मिली।
लाखों में कुछ लोग पुण्यबल से माने महात्मा गये॥12॥

ज्ञाता वैदिक मन्त्रा के प्रथमत:, धाता धारा-धर्म के।
नाना मान्य महर्षि विज्ञ मुनि से मन्वादि से दिव्य-धीरे।
मेधावी कपिलादि से विबुधता-सर्वस्व व्यासादि से।
पृथ्वी ने कितने जने सुअन हैं उद्बुध्द सिध्दार्थ-से॥13॥

मूसा-से जरदश्त-से अरब के नामी नबी-से सुधी।
शिंटो धर्मधुरीण-से कुछ गिने चीनादि के सिध्द-से।
ऐसे ही कुछ अन्य धर्मगुरु-से धार्माग्र्रणी व्यक्ति से।
हैं अत्यल्प हुए सदैव महि में ईसादि-से सद्व्रती॥14॥

है अधयात्म महा पुनीत, तम में है तेज के पुंज-सा।
है विज्ञान विकासमान नभ का पीयूषवर्षी शशी।
है स्वार्थान्धा-विलोचनांजन तथा सद्भाव-अंभोधिक है।
है आधार त्रिकलोक-शान्ति-सुख का सद्बोधा-सर्वस्व है॥15॥

होती है जब पाप-पूरित धारा सद्वृत्तिक उत्पीड़िता।
पाती है पशुता प्रसार बनती स्वार्थान्धाता है कशा।
होता है जब नग्न नृत्य दनुजों के दानवी कृत्य का।
आता है तब मही-मध्य बहुधा कोई महा-दिव्य-धी॥16॥

होता है वह देश-काल प्रतिभू सत्याग्रही संयमी।
देता है बहु दिव्य ज्योति जगती के प्राणियों में जगा।
लेता है बिगड़ी सुधार, करता उध्दार है धर्म का।
पाती है वसुधा अलौकिक सुधा सद्बोधा-सर्वस्व से॥17॥

कोई हो अवतार दिव्य जन हो या हो महा सात्तिवकी।
शिक्षा हो उसकी महा हितकरी, हो उक्ति लोकोत्तारा।
होंगे क्या तब भी सभी रुचिरधीरे, त्यागी, तपस्वी, यती।
क्या होगी तब भी समस्त वसुधा हो शान्त स्वर्गोपमा॥18॥

है स्वाभाविक कामना स्वहित की, है वित्ता-वांछा बली।
प्राणी की सुख-लालसा सहज है, है चित्त स्वार्थी बड़ा।
पंजे में इनके सदा जग रहा, कैसे भला छूटता।
वे हैं विश्वजनीन भूति यदि ए संसार-सर्वस्व हैं॥19॥

क्या है मुक्ति? यथार्थ ज्ञान इसका है प्राणियों को कहाँ।
कोई मानव हो रहस्य इसका है जान पाता कभी।
चिन्ता है किसको नहीं उदर की है जीविका जीवनी।
प्यारी है उतनी न मुक्ति जितनी है भुक्ति भू की प्रिया॥20॥