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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ६

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ऑंखें हैं छवि-कांक्षिणी, श्रवण है लोभी सदालाप का।
जिह्ना है रस-लोलुपा, सुरभि की है कामुका नासिका।
सारी प्रेय विभूति को विषय को हैं इन्द्रियाँ चाहती।
जाता है बन योग रोग, किसको है भोग भाता नहीं॥21॥

तो है कौन विचित्र बात मन में जो है भरी मत्तता।
है आश्चर्य नहीं मनुष्य बनता जो स्वार्थ-सर्वस्व है।
जो है जीव ममत्व से भरित तो क्या है हुआ अन्यथा।
क्या है भौतिकता न भूत-चय की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥22॥

होती है तम-मज्जिता मलिनता-आपूरिता ज्यों तमा।
त्यों ही मानव की प्रवृत्तिक रहती है स्वार्थ से आवृता।
जैसे तारक से मयंक-कर से पाती निशा है प्रभा।
त्यों ही है वर बोध से नृमति भी है दिव्य होती कमी॥23॥

आचार्यों महिमा-महान पुरुषों से प्राप्त सद्वृत्तिकयाँ।
होती हैं उपकारिका हितकरी सद्बोधा-उत्पादिका।
वे हैं आकर यथाकाल करते उद्बुध्द संसार को।
तो भी स्वार्थ-प्रवृत्तिक-वृत्तिक जनता है त्याग पाती नहीं॥24॥

है आवश्यक वस्तु व्यस्त रखती देती व्यथा है क्षुधा।
बाधा है सब काल व्याधिक बनती है वैरिता बेधाती।
है दोनाकर बाँधाती विवशता, है व्यर्थता बाँट में।
प्राणी स्वार्थनिबध्दा दृष्टि-सुपथों में विस्तृता क्यों बने॥25॥

ऐसे हैं महि में मिले सुजन भी जो त्याग की मूर्ति थे।
लोगों का हित था निजस्व जिनका जो थे परार्थी बड़े।
ए लोकोत्तर धर्मप्राण जन ही भू दिव्य आदर्श हैं।
होते हैं अपवाद, लोक कितने ऐसे मिले लोक में॥26॥

औरों का मुँह-कौर छीन, भरते हैं पेट भूखे हुए।
लोगों की विविध विभूति हरते हैं, भीति होती नहीं।
होते हैं बहु लोग तृप्त बहुधा पीके सगों का लहूँ।
होवे क्यों न अधर्म, स्वार्थ इतना है धर्म प्यारा किसे॥27॥

माता हैं महि देवता, पर हुए भीता कलंकांक से।
हाथों से अपने अबोध सुत का है घोंट देती गला।
जो थे देव-समान, संकट पड़े, वे दानवों-से बने।
कोई हो उपलब्धा आत्महित को है त्याग पाता नहीं॥28॥

वेदों की भव-वन्दनीय श्रुति को शास्त्राकदि के मर्म को।
सन्तों की शुचि उक्ति को जगत के सध्दार्म के मन्त्रा को।
जाती है तब भूल भक्ति-पथ को विज्ञान की वृत्तिक को।
होती है जब मत्त आत्मरति की वांछा बलीयान हो॥29॥

कानों ने कलिकाल के कब सुनी ऐसी महागर्जना।
हो पाई कब यों कठोर रव से शब्दायमाना दिशा।
हो पाया किस देश मध्य उतना कोलाहलों को बढ़ा।
होता है अब वज्रघोष जितना भू में अहंभाव का॥30॥

सा भूतल में समुद्र-जल में युध्दाग्नि-ज्वाला जगा।
ओले से नभ-यान से दव-भ गोले गिरा प्रायश:।
नाना दानवता-प्रपद्बच-वलिता दुर्वृत्तिकयों को बढ़ा।
है भूलोक-विलोक-साधन-व्रती लिप्सा अहंभाव की॥31॥

नाना नूतन अस्त्रा-शस्त्रा तुपकें गोले बड़े विप्लवी।
हैं संहारक कोटि-कोटि जन के कल्पान्त के अर्क-से।
होते हैं उनसे विनष्ट नगरों के वृन्द तत्काल ही।
है विज्ञान-विभूति आज वसुधा-उद्भूति-विधवंसिनी॥32॥

छाये हैं बहु व्योमयान नभ में जो काल-से क्रूर हैं।
हो-हो हुंकृत ओत-प्रोत निधिक हैं संग्राम के पोत से।
पृथ्वी में उन्मादपूर्ण बजती है द्वंद्व की दुन्दुभी।
प्राय: है अब भ्रान्ति क्रांति बनती, भूशान्ति भागे कहाँ॥33॥

अत्याचार-रता कठोर-हृदया है रक्तपानोत्सुका।
है संहार-परायणा पवि-समा मांसाशिनी पापिनी।
नाना मानव-वंश-धवंस-निरता निन्द्या कृतान्तोपमा।
है कृत्या सम कूटनीति-कटुता-आपूरिता मेदिनी॥34॥

है पाथोधिक विभूति दान करता स्वायत्ता है सिंधुजा।
पृथ्वी है वर्शवत्तिकनी अनुगता है दामिनी शासिता।
पंखा है झलता समीर, मुसका देता सुधा है शशी।
फूला है बन भाव-मत्त, भव को, भूला अहंभाव है॥35॥

होवे जो हित पाप से वह उसे तो पुण्य है मानता।
अत्याचार किये मिले यदि धारा तो क्या सदाचार है।
जो हो लाभ किये कुवृत्तिक तब क्यों सद्वृत्तिक सद्वृत्तिक है।
है सांसारिकता न ईश्वर-रता, है स्वार्थसिध्दिप्रदा॥36॥

ज्ञाता होकर विश्वव्याप्त विभु के जो हैं बने पातकी।
ऑंखें जो नर की बचा प्रभु-दृगों में धूल हैं झोंकते।
जो हो आस्तिक मूर्तिमान बनते हैं नास्तिकों के चचा।
वे हैं ईश्वर मानते, मन भला क्यों मान लेगा इसे॥37॥

होती है कब भीति लोकपति की काटे करोड़ों गले।
आता है कब धयान पूत प्रभु का संसार को पीसते।
काँपा कौन नृशंस सर्वगत के सर्वाश्रितों को सता।
हारी ईश्वरसिध्दि कर्मपथ में आस्वार्थ की सिध्दि से॥38॥

हृद्या ईश्वरता हुई न इतनी हो मुक्ति से मंडिता।
पाके दिव्य मनोज्ञ मूर्ति जितनी भाई अहंमन्यता।
प्यारी हैं उतनी कभी न लगती आधयात्मिकी वृत्तिकयाँ।
भाती है जितनी विभूति-रत को भू भौतिकी प्रक्रिया॥39॥

प्राणी है अनुरक्त भक्त जितना संसार-सम्पत्तिक का।
प्यारी है उतनी उसे न तपसा-सम्बन्धिकनी साधना।
भोगेच्छा जितनी रुची, प्रिय लगी वांछा सुखों की यथा।
वैसी ही कब त्यागवृत्तिक नर की आकांक्षिता हो सकी॥40॥

होता है पर-कार्य पूत, जनता का श्रेय सत्कर्म है।
तो भी त्राकण-निमित्त आत्महित का उद्बोधा ही मुख्य है।
होवे मुक्ति महा विभूति, फिर भी है भुक्ति ही जीवनी।
सच्चा हो परलोक, किन्तु मिलता आलोक है लोक में॥41॥

होता देख महा अनर्थ बनता कोई परार्थी नहीं।
होते भी अपकार कौन करता सत्कार है अन्य का।
मर्यादा प्रिय है किसे न, किसको है नाम प्यारा नहीं।
सत्ता है किसकी न भूति, किसको भाती महत्ता नहीं॥42॥

बाधा की हरती अबाधा गति है धीरे धीरता से भरी।
वैरी के बल को विलोप करती हैं वीरता-वृत्तिकयाँ।
देती है कर छिन्न-भिन्न उसको सत्ता-महत्ता दिखा।
दुष्टों की पशुता-प्रवृत्तिक सहती है शक्तिमत्तक नहीं॥43॥

जोड़े क्यों हित क्रुध्द क्रूर नर से पा प्रार्थिता शक्तियाँ।
मोड़े क्यों मुख, रुष्ट दुष्ट जन को कोड़े लगाये न क्यों।
छोड़े क्यों छल-छ-र्सि र्खंल को दे क्यों न धुर्रे उड़ा।
तोडे क्यों न कृतान्त-तुल्य बन के दुर्दान्त के दन्त को॥44॥

जैसी है त्रिकगुणात्मिका त्रिकगुण से है वैसि ही शासिता।
धू-धू है जलती प्रफुल्ल बनती होती सुधासिक्त है।
है दिव्या मधुरा महान सरसा स्वार्थान्धाता से भरी।
है सांसारिकता रहस्य-भरिता वैचित्रय से आवृता॥45॥