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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ३

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मोहते हुए मनों को जब।
दिखाते हैं वे छवि न्यारी।
कौन तब देता है दिखला।
दृगों को फूली फुलवारी॥8॥

कलानिधि मंद-मंद हँसकर।
जब कलाएँ दिखलाता है।
जिस समय राका-रजनी को।
चूमकर गले लगाता है॥9॥

चाँदनी छिटक-छिटककर जब।
धारा को सुधा पिलाती है।
रजकणों का चुम्बन कर जब।
उन्हें रजताभ बनाती है॥10॥

नवल श्यामलतन नीरद जब।
गगनतल में घिर आते हैं।
पुरन्दर-धानु से हो विलसित।
जब बड़ी छटा दिखाते हैं॥11॥

दामिनी दमक-दमक थोड़ा।
छटा क्षिति पर छिटकाती-सी।
अंक में नव जलधार के जब।
दिखाती है मुसुकाती-सी॥12॥

किनारों पर उन जलदों के।
श्यामता है जिनकी विकसित।
अस्त होते रवि की किरणें।
लगाती हैं जब लैस ललित॥13॥

गगनतल को उद्भासित कर।
चमकते हैं जब उल्काचय।
कौन तब इन बहु दृश्यों से।
बनाता है महि को मुदमय॥14॥

मुग्धता का सुन्दर साधन।
विविध भावों का अभिनन्दन।
सुखों का है आनन्द सुहृद।
विकासों का है नन्दनवन॥15॥

(5)

मुग्धता जन-मानस में भर।
बहु कलाएँ दिखलाता है।
बैठ कोकिल-कुल-कंठों में।
कौन काकली सुनाता है॥1॥

चहकती ही वह रह जाती।
नहीं चाहत उसको छूती।
मिले किसका बल तूती की।
बोलती रहती है तूती॥2॥

पपीहा पी-पी कहता है।
प्यारे से भरा दिखाता है।
गले से किसके गला मिला।
गीत उन्मादक गाता है॥3॥

कान में सुननेवालों के।
सुधा-बूँदें टपकाता है।
सारिका के सुन्दर स्वर को।
बहु सरस कौन बनाता है॥4॥

लोक-हितकारक शब्दों को।
आप रट उन्हें रटाता है।
शुकों के कोमल कंठों को।
कौन प्रिय पाठ पढ़ाता है॥5॥

लोक के ललचे लोचन को।
बहु-विलोचनता भाती है।
मोर के मंजुल नर्त्तन में।
कला किसकी दिखलाती है॥6॥

मत्तता में गति में रव में।
रमण कर मोहित करता है।
कपोतों की सुन्दरता में।
कौन मोहकता भरता है॥7॥

खगों के कलरव में जब में।
रंग-रूपों में है खिलता।
पंख छवि में रोमावलि में।
कहाँ आनन्द नहीं मिलता॥8॥

(6)

विपंची के वर वादन में।
ध्वनित किसकी ध्वनि होती है।
तानपूरों की कोर-कसर।
कान्तता किसकी खोती है॥1॥

बज रही सारंगी-स्वर में।
रंग किसका दिखलाता है।
सितारों के तारों में भी।
तार किसका लग पाता है॥2॥

मृदंगों की मृदंगता में।
मन्द्ररव किसका सुनते हैं।
धुनों में किसकी धुन पाकर।
लोग अपना सिर धुनते हैं॥3॥

थाप में बजते तबलों की।
प्रबलता किसकी पाते हैं।
बोल तब कौन सुनाता है।
लोग जब ढोल बजाते हैं॥4॥