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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ४

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मुरलिका के मृदुतम रव में।
माधुरी कौन मिलाता है।
सुने शहनाई कानों को।
सुधा-रस कौन पिलाता है॥5॥

मँजीरा मँजे करों में पड़।
मंजुता किससे पाता है।
सकल करतालों को रुचिकर।
ताल दे कौन बनाता है॥6॥

न संगत होने पर किसकी।
गतों की गत बन जाती है।
बिना पाये किसकी कलता।
लय नहीं लय कहलाती है॥7॥

राग-रागिनियों में किसका।
भरा अनुराग दिखाता है।
गीत-संगीतों में किसका।
गौरवित गान सुनाता है॥8॥

मनोमोहक आलापों में।
कौन आलापित होता है।
कान्त कंठों में किसका कर।
बीज पटुता का बोता है॥9॥

बनाता है वादन को प्रिय।
गान को करता है रसमय।
धुनों का धन स्वर का सम्बल।
लयों का है आनन्द-निलय॥10॥

(7)

बालकों की तुतली बोली।
कमल-सा कोमल कान्त वदन।
बड़ी भोली-भाली आँखें।
मोतियों-से कमनीय रदन॥1॥

बहँकना मुँह लटका लेना।
ललकना उनका मुसकाना।
मचलना ठुमुक-ठुमुक चलना।
फूल-जैसा ही खिल जाना॥2॥

सुने देखे मानव किसकी।
याद करता है वह लीला।
सकल भव में जो है व्यापित।
बन महा अनुरंजन-शीला॥3॥

कामिनी के उस मृदु मुख में।
कहा जो गया कलाधर-सा।
रस बरस जाने से जिसके।
सरस होती रहती है रसा॥4॥

लोच-लालित उस लोचन में।
भरी है जिसमें रोचकता।
प्रेम-जलबिन्दु झलकते हैं।
जहाँ वैसे जैसे मुक्ता॥5॥

अधर पर लसी उस हँसी में।
सुधा जो वसुधातल की है।
जिसे देखे पिपासिता बन।
लालसा सब दिन ललकी है॥6॥

उन ललित हावों-भावों में।
केलियों में जिनकी कलता।
मोहती किसे नहीं, मनसिज।
पा जिसे भव को है छलता॥7॥

उन विविध परिहासादिक में।
मुदित चित जिससे है खिलता।
कला किसकी दिखलाती है।
कौन है रमा हुआ मिलता॥8॥

मानवों के प्रफुल्ल मुख पर।
छटा किसकी दिखलाती है।
वीर-हृदयों की वरता में।
भूति किसकी छवि पाती है॥9॥

कौन करुणाद्रव बूँदों में।
झलकता पाया जाता है।
हास्य-रस के सर्वस्वों में।
कौन हँसता दिखलाता है॥10॥

जुगुप्सा की लिप्साओं में।
कौन शुचि रुचि से रहता है।
कौन बहु शान्तभूत चित में।
शान्तिधारा बन बहता है॥11॥

बहु गरलता से बचने की।
सती की-सी गति-मति सिखला।
कौन बनता है महिमामय।
रुद्रता में शिवता दिखला॥12॥

देख थर-थर कँपते नर को।
परम पाता-पद लेता है।
कौन भय-भरित मानसों को।
अभयता का वर देता है॥13॥

विचित्र-चरित्रा चरित्रों को।
सुचित्रिकत कर चमकाता है।
कौन अद्भुतकर्मा नर के।
अद्भुतों का निर्माता है॥14॥

विविध भावों का है वैभव।
विभावों का है आलम्बन।
रसों का है आनन्द-रसन।
रसिक जन का है जीवन-धन॥15॥