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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ - ३

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चाह पीसने लग जाती है, आह बहुत तड़पाती है।
कभी टपकते हैं तो टपक फफोलों की बढ़ जाती है।
पागल बने नहीं मन कैसे जब कि हैं पहेली ऑंखें।
सिर पर उसके जब सवार हैं दो-दो अलबेली ऑंखें॥8॥

शार्दूल-विक्रीडित
(6)

होता है मधु स्वयं मुग्ध किसकी देखे मनोहारिता।
पाती है महि में कहाँ विकचता पुष्पावली ईदृशी।
ऐसी है कलिता द्रुमावलि कहाँ, कान्ता लता है कहाँ।
लोकों में नयनाभिराम मन-सा आराम है कौन-सा॥1॥

होती है बहु रत्न-राजि-रुचिरा मुक्तावली-मंडिता।
लीला मूर्तिमती अतीव ललिता उल्लासिता रंजिता।
नाना नर्त्तन-कला-केलि-कलिता आलोक-आलोकिता।
मंदादोलित सिंधु-तुल्य मन की कान्ता तरंगावली॥2॥

होती है शशि-कला-कान्त रवि की रम्यांशु-सी रंजिता।
ऊषा-सी अनुराग-राग-लसिता प्रात:प्रभोद्भासिता।
दिव्या तारक-मालिका-विलसिता नीलाभ्र-शोभांकिता।
रंगारंग छटा-निकेत मन की नाना तरंगावली॥3॥

जो हो पातक-मूर्ति जो भरित हो पापीयसी पूत्तिक से।
पाके ताप अतीव भूमि जिससे हो भूरि उत्ताकपिता।
जो हो दानवता विभूति जिसमें दुर्भावना हो भरी।
पूरी हो न प्रभो! कभी मनुज की ऐसी मनोकामना॥4॥

है चिन्तामणि चिन्तनीय विदिता है कौस्तुभी कल्पना।
है कल्पद्रुम-मर्म ज्ञात सुर-गो की गीतिका है सुनी।
है क्या पारस? है रहस्य समझा, बातें गढ़ी हैं गयी।
ये क्या हैं? मन के प्रतीक अथवा हैं मानसी प्रक्रिया॥5॥

कैसे तो मचले न क्यों न बहके कैसे सुनाई सुने।
कैसे तो बिगडे बने न कहके बातें बड़ी बेतुकी।
कैसे तो हठ ठान के न तमके सारी बुराई क।
ताने तो फिर क्यों भला न मन जो माने मनाये नहीं॥6॥

छूटी मादकता कभी न मद की, है दंभवाला बड़ा।
मानी है, इतना ममत्व-रत है, जो मान का है नहीं।
घूमा है करता प्रमाद-नभ में, उन्माद से है भरा।
प्राय: है बनता प्रमत्त मन की जाती नहीं मत्तता॥7॥

देखेंगे दृग रूप, देख न सकें तो दृष्टि का दोष है।
जिह्ना है रसकामुका रसनता चाहे बची ही न ही।
चाहेगी ललना ललाम, ललना चाहे न चाहे उसे।
है काया कस में न किन्तु मन की माया नहीं छूटती॥8॥

ऑंखें हैं कस में न, रूप-शशि की जो हैं चकोरी बनी।
हो जिह्ना रस-लुब्धा स्वाद-धन की जो है हुई चातकी।
भाता है विषयोपभोग उसको जो कंज के भृंगसा।
टूटेगा जग-जाल तो न, मन जो जंजाल में है फँसा॥9॥

देते हैं पादप प्रमोद हिलते प्यारे ह पत्रा-से।
लेती है कलिका लुभा विलस के हैं बेलियाँ मोहती।
रीझा है करता विलोक तृण की, दूर्वा-दलों की छटा।
होता मानस है प्रफुल्ल लख के उत्फुल्ल पुष्पावली॥10॥

मोरों का अवलोक नर्त्तन स्वयं है नाचता मत्त हो।
गाता है बहु गीत कंठ अपना गाते खगों से मिला।
होता है मन महा मुग्ध पिक की उन्मुक्त तानें सुने।
देखे रंग-बिरंग की विहरती नाना विहंगावली॥11॥

हो ऊँची, नत हो, कला-निरत हो, हैं नाचती मत्त हो।
देती हैं बहु दिव्य दृश्य दिखला हो भूरि उल्लासिता।
हैं मंदानिल-दोलिता सुलहरें, हैं भीतियों से भरी।
हैं कल्लोल-समान लोल मन की लीलामयी वृत्तिकयाँ॥12॥

कैसे व्यंजन-स्वाद जान सकती, क्यों रीझती खा उसे।
क्यों मीठे फल तो विमुग्ध करते, क्यों दुग्धाता मोहती।
कैसे तो रस के विभेद खुलते, क्यों ज्ञात होते किसे।
क्यों होती रसना रसज्ञ, मन जो होता रसीला नहीं॥13॥

क्यों तो चंचलता दिखा मचलते सीधो नहीं ताकते।
कैसे तो अड़ते कटाक्ष करते क्यों तीर देते चला।
क्यों चालें चलते बला-पर-बला लाते दिखाते फि।
जो मानी मन मानता नयन तो कैसे नहीं मानते॥14॥

जो पाये वन-फूल, फूल बन ले, काँटे न बोता फिर।
क्यों हो स्वार्थ-प्रवृत्तिक-बेलि बहुधा नेत्रकम्बु से सिंचिता।
होता आग्रह-अंधा है हित उसे तो सूझता ही नहीं।
क्यों है तू हठ ठानता मन-कही क्यों है नहीं मानता॥15॥

कोई है अपना न, स्वप्न सब है, संसार निस्सार है।
काया है किस काम की, जलद की छाया कही है गयी।
है सम्पत्तिक विपत्तिक, राज रज है, है भूति तो भूति ही।
क्यों यों है मन! तू उदास? विष है ऐसी उदासीनता॥16॥

जो काली अलकें विलोक ललकें लालायिता ही रहीं।
देखे लोचन लोच है ललचता जो हो महा लालची।
जो गोरा तन कंज मंजु मुखड़ा है मत्त देता बना।
कैसे तो मथता न काम मन को माया दिखा मन्मथी॥17॥

भाती है उतनी न भूति जितनी भावों भरी भामिनी।
प्यारी है उतनी न भक्ति जितनी भ्रू-भंगिमा-पंडिता।
मीठी है उतनी सुधा न जितनी है ओष्ठ की माधुरी।
क्यों हो गौरव-धाम, काम मन को है कामिनी काम से॥18॥

बेढंगे सिर उठा बात कहते बुल्ले बिलाते मिले।
पाये पक्ष पहाड़ जो न सँभले तो पक्ष काटे गये।
खाते हैं मुँह की सदैव बहके वे हैं बुझे जो बले।
ले दंभी मन सोच धवंस प्रिय क्यों विधवंस होगा नहीं॥19॥