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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ - ४

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दो क्या विंशति बाँह का वधा हुआ है स्वर्णलंका कहाँ।
हो गर्वान्धा सहस्रबाहु बिलटा उत्पीड़नों में पड़ा।
दंभी तू मन हो न भूलकर भी है दंभ तो दंभ ही।
होगा गर्व अवश्य खर्व, न रहा कंदर्प का दर्प भी॥20॥

आती है बहुधा विपत्तिक, वश क्या, क्यों धीरे तजे धीरता।
कोई चाल चले, चले, विचलते क्यों बुध्दिवाले रहें।
वैरी वैर क, क, विकल हो क्यों वीर की वीरता।
क्यों निश्चिन्त रहे न चित्त! नित तू, चिन्ता चिता-तुल्य है॥21॥

सोना है करती कुधातु अय को है सिध्दि सत्तामयी।
होती है उसकी विभूति-बल से पूरी मनोकामना।
जाती है बन दिव्य ज्योति तम में है मोहती मंजु हो।
है चिन्तामणि के समान रुचिरा चिन्ता चिता है नहीं॥22॥

हो पाई वश में नहीं सबल हो जो वासनाएँ बुरी।
हो-हो के कमनीय कान्त न बनी जो कामना काम की।
जो ऑंखें न खुलीं प्रबुध्द कहला जो हैं प्रपंची छिपे।
तो क्या चेतनता अचिन्त्य पटुता क्या चित्त की चातुरी॥23॥

रस्सी साँप बनी, सदैव तम में दीखे खड़े भूत ही।
पत्तो के खड़के भला कब नहीं हैं कान होते खड़े।
काँपा है करता, हुए हृदय में आतंक की कल्पना।
जाता त्राकस नहीं, सशंक मन की शंका नहीं छूटती॥24॥

सा प्रेत-प्रसंग भ्रान्तिमय हैं, हैं कल्पना से भ।
खोजे भी तरु के तले तिमिर में क्या हैं चुडैलें मिलीं।
देखा दृष्टि-विवेक ने, पर कहीं बैताल दीखे नहीं।
होता है भयभीत व्यर्थ मन! तू, है भूत भू में कहाँ॥25॥

पेड़ों में भ्रमते फि तिमिर में बागों वनों में बसे।
रातें बीत गईं श्मशान-महि में शंका-स्थलों में रहे।
पाया भूत कहाँ, कहीं न फिरती देखी गयी भूतनी।
शिक्षा है अनुभूत भूत-भय की बातें वृथा भूत हैं॥26॥

है रोता, हँसता, प्रफुल्ल बनता, होता कभी मत्त है।
हो पाथोधिक-तरंगमान नभ के ता कभी, तोड़ता।
जाता है वन भूति भूतप कभी, पाता विधाता कभी।
कैसे तो न क प्रपंच मन! जो तू है प्रपंची महा॥27॥

भू में कौन अनर्थ अर्थवश हो तूने किया है नहीं।
तेरी पापप्रवृत्तिक ने प्रबल हो पीसा नहीं है किसे।
तेरा देख महाप्रकोप महि क्या होती नहीं कम्पिता।
जो है पातक-प्रेम-मूढ़ मन! तो तू है महा पातकी॥28॥

है गोलोक कहाँ, विभूति उसकी है दृष्टि आती नहीं।
है बैकुण्ठ कहाँ? कहाँ शिवपुरी? है स्वर्ग-भू भी कहाँ।
पाया है किसने कहाँ सुरगवी या नन्दनोद्यान को।
ये हैं कल्पक कान्त भूत मन की लोकोत्तारा भूतियाँ॥29॥

जो है संयमशील, वृत्तिक जिसकी है दिव्य ज्ञानात्मिका।
पापों को तज जो सदैव करता है पुण्य के कार्य ही।
जो है मुक्त प्रपंचजात रुज से, है मुक्त प्राणी वही।
क्या है मुक्ति? विकारबध्द मन की उन्मुक्ति ही मुक्ति है॥30॥

क्या है ब्रह्म? स्वरूप क्या प्रकृति का? क्या विश्व की है क्रिया।
क्या है ज्ञान, विवेक, बुध्दि अथवा क्या पाप या पुण्य है।
क्यों होता इनका विचार, इनको कैसे सुधी जानते।
जो होता मन ही न तो मनन क्यों होता किसी तत्तव का॥31॥

हैं नाना कृतियाँ विभूति उसकी हैं इंगिते नीतियाँ।
है विज्ञान विवेक मानसिकता है भक्ति कान्ता क्रिया।
है धाता रमणीयता मधुरता लोकोत्तारा प्रीति का।
दासी है भव-भूति मुक्त मन की, हैं सेविका मुक्तियाँ॥32॥

हैं सारी निधिकयाँ रता अनुगता, सम्पत्तिक है आश्रिता।
हैं ब्रह्मांड-विभूतियाँ सहचरी, हैं शासिता शक्तियाँ।
हैं संसार-पदार्थ हस्तगत-से, हैं वस्तुएँ स्वीकृता।
है सेवारत सिध्दि, सिध्द मन की हैं सिध्दियाँ सेविका॥33॥

ऊषा कान्त कपोल, भानु-किरणें आलोकिता रंजिता।
भू के रंग-बिरंग पुष्पतरु की श्यामाभिरामा छटा।
नागों की ललितांगता रुचिरता कैसे नहीं मोहती।
हैं रंगीन बने त्रिकलोक, मन की रंगीनियों से रँगे॥34॥

क्या हैं ज्ञान, विवेक, बुध्दिबल क्या, ये मानसोत्पन्न हैं।
क्या हैं चिन्तन-शक्तियाँ? मनन क्या? क्या तर्कनाएँ सभी।
जो हैं वे सब हैं विभूति उसकी या हैं उसी की क्रिया।
कैसे जाय कही महान मन की सत्ता-इयत्ताक कभी॥35॥