भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्तर्जगत्
हृदय
(1)

मुग्धकर सुन्दर भावों का।
विधाता है उसमें बसता।
देखकर जिसकी लीलाएँ।
जगत है मंद-मंद हँसता॥1॥

रमा मन है उसमें रमता।
वह बहुत मुग्ध दिखाती है।
कलाएँ करके कलित ललित।
वह विलसती मुसकाती है॥2॥

साधना के बल से उसमें।
अलौकिक रूप विलोके हैं।
देखनेवाली ऑंखों ने।
दृश्य अद्भुत अवलोके हैं॥3॥

कभी उसमें दिखलाती है।
श्यामली मूर्ति मनोरम-तम।
किरीटी कल-कुण्डल-शोभी।
विभामय विपुल विभाकर सम॥4॥

बहु सरस नवल नीरधार-सी।
जगत-जन-जीवन-अवलम्बन।
योगियों की समाधिक की निधिक।
सिध्दजन-सकल-सिध्दि-साधन॥5॥

श्वास-प्रश्वासों में जिसकी।
अनाहत नाद सुनाता है।
अलौकिक भावों का अनुभव।
विश्व में जो भर पाता है॥6॥

अलौकिक जिसके स्वर-द्वारा।
सर्वदा हो-हो मंजु स्वरित।
ज्ञान-विज्ञानों के धाता।
वेद के मंत्र हुए उच्चरित॥7॥

कभी उसमें छवि पाती है।
मूर्ति केकी-कलकंठोपम।
मनोहर कोटि-काम-सुन्दर।
शरद के नील सरोरुह सम॥8॥

लाभ कर दिव्य ज्योति जिसकी।
जगमगाता है उर सारा।
चरित-बल से जो बन पाया।
जगत-जन-लोचन का तारा॥9॥

कभी उसमें नवघन-रुचि-तन।
मधुमयी मुरली-वादन-रत।
विलसता है बन बहु मोहक।
सुधा-रस बरसाकर अविरत॥10॥

गीत गाता है वह ऐसे।
द्रवित जिससे पवि होता है।
जो सरसता अन्तस्तल में।
बहाता दिवरस सोता है॥11॥

कभी उसमें शोभित देखी।
मूर्ति सित भानु सदृश सुन्दर।
सुरसरी-लसिता, दिग्वसना।
त्रिकलोचन, चन्द्रभाल, मणिधार॥12॥

अमंगल वेश भले ही हो।
किन्तु है मंगल-मूर्ति-जनक।
भूति-बल से वह करता है।
अयस को पल में कान्त कनक॥13॥

ज्योति उसमें वह जगती है।
न जैसी जग में जग पाई।
दिव्यता मूर्तिमती वैसी।
नहीं दिव में भी दिखलाई॥14॥

साधना-दृग-द्वारा जिनको।
साधाकों ने ही अवलोकी।
दमकती रहती हैं उसमें।
मूर्तियाँ दिव्य देवियों की॥15॥

मंजु मुखरित सुरभित मुकलित।
प्रफुल्लित वदन मंद विहँसित।
दिखाता है वसंत उसमें।
सुविकसितसुमनावलि-विलसित॥16॥

बिहरते बहुरंजन करते।
घहरते घिरते आते हैं।
सरसतम बन-बनकर उसमें।
वारिधार रस बरसाते हैं॥17॥

स्वर्ग-सुख-विलसित नरक-निलय।
दिव्यतम कलित ललित कल है।
सरस-से-सरस गरल-पूरित।
सुधा से भरित हृदय-तल है॥18॥

जनक है दिव-विभूतियों का।
सुअन उसका जग-अनुभव है।
अलौकिकता का है आलय।
हृदय में भरित भव-विभव है॥19॥

न कामद कामधेनु इतनी।
न सुफलद सुरतरु है वैसा।
नहीं चिन्तामणि है चित-सा।
स्वयं है हृदय हृदय-जैसा॥20॥