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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - २

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(2)

कभी वह छिलता रहता है।
कभी बेतरह मसलता है।
कभी उसको खिलता पाया।
कभी बल्लियों उछलता है॥1॥

खीजता है इतना, जितना।
खीज भी कभी न खीजेगी।
कभी इतना पसीजता है।
ओस जितना न पसीजेगी॥2॥

कभी इतना घबराता है।
भूल जाता है अपने को।
कभी वह खेल समझता है।
किसी के गरदन नपने को॥3॥

कभी वह आग-बबूला बन।
बहुत ही जलता-भुनता है।
कभी फूला न समाता है।
फूल काँटों में चुनता है॥4॥

नहीं परदा रहने देता।
बहुत परदों से छनता है।
कभी पानी-पानी होकर।
ऑंख का ऑंसू बनता है॥5॥

फिर नहीं उसे देख पाता।
जिस-किसी से वह फिरता है।
कभी पड़ गये प्यारे-जल में।
मछलियों-जैसा तिरता है॥6॥

लाग से लगती बातें कह।
आग वह कभी लगाता है।
कभी उसके हँस देने से।
फूल मुँह से झड़ पाता है॥7॥

कभी दिखलाता है नीरस।
कभी वह रस बरसाता है।
फूल-सा कभी मिला कोमल।
उर कभी पवि बन पाता है॥8॥

(3)

हो गया क्या, क्यों बतलाऊँ।
धाड़कती रहती है छाती।
बहुत बेचैनी रहती है।
रात-भर नींद नहीं आती॥1॥

लगाये कहीं नहीं लगता।
बहुत ही जी घबराता है।
किसी की पेशानी का बल।
बला क्यों मुझपर लाता है॥2॥

आप ही फँस जाऊँ जिसमें।
जाल क्यों ऐसा बुनता हूँ।
उन्हें लग गयी बुरी धुन तो।
किसलिए मैं सिर धुनता हूँ॥3॥

किसी का मन मे मन से।
मिलाये अगर नहीं मिलता।
मत मिले, पर तेवर बदले।
बेतरह दिल क्यों है हिलता॥4॥

कौन सुनता है कब किसकी।
कौन कब ढंग बदलता है।
मैल उसके जी में हो, हो।
हमारा दिल क्यों मलता है॥5॥

किसी की ओर किसी ने कब।
प्यारे की ऑंखों को फेरा।
किसी के तड़पाने से क्यों।
तड़प जाता है दिल मेरा॥6॥

कौन बतलायेगा मुझको।
सितम क्यों कोई सहता है।
आस पर ओस पड़ गयी क्यों।
दिल मसलता क्यों रहता है॥7॥

कहाँ उसकी ऑंखें भींगी।
कब बला उसकी सोती है।
टपक पड़ते हैं क्यों ऑंसू।
टपक क्यों दिल में होती है॥8॥

(4)

दुखों के लम्बे हाथों से।
सुखों की लुटती हैं मोटें।
चैन को चौपट करती हैं।
कलेजे पर चलती चोटें॥1॥

खिले कोमल कमलों का है।
सब सितम भौरों का सहना।
मसल जाना है फूलों का।
कलेजे का मलते रहना॥2॥

बड़ी ही कोमल कलियों का।
है कुचल जाना या सिलना।
छेद छाती में हो जाना।
या किसी के दिल का छिलना॥3॥

तड़पते कलपा करते हैं।
नहीं पल-भर कल पाते हैं।
न जाने कैसे तेवर से।
कलेजे कत जाते हैं॥4॥