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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ३

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टूट पड़ना है बिजली का।
हाथ जीने से है धाोना।
किसी पत्थर से टकराकर।
कलेजे के टुकड़े होना॥5॥

जायँ पड़ काँटे सीने में।
लहू का घूँट पड़े पीना।
नहीं जुड़ पाता है टूटे।
कलेजा है वह आईना॥6॥

भूल हमने की तो की ही।
न जाने ये क्यों हैं भूले।
मँह फुलाये जो वे हैं तो।
क्यों फफोले दिल के फूले॥7॥

बहुत ही छोटे हों, पर हैं।
छलकते हुए व्यथा-प्यारेले।
किसी के छिले कलेजे के।
छरछराने वाले छाले॥8॥

(5)
 
दूसरों के दुख का मुखड़ा।
नहीं उसको है दिखलाता।
किसी की ऑंखों का ऑंसू।
वह कभी देख नहीं पाता॥1॥

कौर जिन लोगों के मुँह का।
सदा ही छीना जाता है।
बहुत कुम्हलाया मुँह उनका।
कब उसे व्यथित बनाता है॥2॥

बनाकर बहु चंचल विचलित।
चैन चित का हर लेती है।
किसी पीड़ित की मुखमुद्रा।
कब उसे पीड़ा देती है॥3॥

साँसतें कर कितनी जिनको।
सबल जन सदा सताते हैं।
विकलता-भ नयन उनके।
कब उसे विकल बनाते हैं॥4॥

पिसे पर भी जो पिसता है।
सदा जो नोचा जाता है।
बहुत उतरा उसका चेहरा।
उसे कब दुख पहुँचाता है॥5॥

छली लोगों के छल में पड़।
कसकती जिनकी छाती है।
खिन्नता उनके आनन की।
उसे कब खिन्न बनाती है॥6॥

जातियाँ जो चहले में फँस।
ठोकरें अब भी खाती हैं।
जल बरसती उनकी ऑंखें।
कहाँ उसको कलपाती हैं॥7॥

डाल देता है ऑंखों पर।
अज्ञता का परदा काला।
बनाता है नर को अंधा।
हृदय में छाया ऍंधिकयाला॥8॥

(6)

चाल वे टेढ़ी चलते हैं।
लिपट जाते कब डरते हैं।
नहीं है उनका मुँह मुड़ता।
मारते हैं या मरते हैं॥1॥

भरा विष उसमें पाते हैं।
बात जो कोई कहते हैं।
पास होती हैं दो जीभें।
सदा डँसते ही रहते हैं॥2॥

जब कभी लड़ने लगते हैं।
खडे हो जान लड़ाते हैं।
जान मुशकिल से बचती है।
अगर वे दाँत गड़ाते हैं॥3॥

बहुत फुफकारा करते हैं।
नहीं टल पाते हैं टाले।
बु हैं काले साँपों से।
काल हैं काले दिलवाले॥4॥

(7)

अनिर्मल छिछली नदियों का।
सलिल क्यों लगता है प्यारा।
सरस ही नहीं, सरसतम है।
सुरसरी की पावन धारा॥1॥

चमकते रहते हैं ता।
ज्योतियों से जाते हैं भर।
सुधा बरसाता रहता है।
सुधाकर ही वसुधा-तल पर॥2॥

पास तालों तालाबों के।
वकों का दल ही जाता है।
हंस क्यों तजे मानसर को।
कहाँ वह मोती पाता है॥3॥

सफल कब हुए सुफल पाये।
न सेमल हैं उतने सुन्दर।
किसलिये मुग्ध नहीं होते।
रसालों की रसालता पर॥4॥