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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ३

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हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी।
कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को।
छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है।
सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥

वे त्यागेंगी सकल-सुख औ स्वार्थ-सारा तजेंगी।
औ रक्खेंगी निज-हृदय में वासना भी न कोई।
ज्ञानी-ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो।
कैसे त्यागें हृदय-धन को प्रेमिका-गोपिकायें॥42॥

भोगों को औ भुवि-विभव को लोक की लालसा को।
माता-भ्राता स्वप्रिय-जन को बन्धु को बांधवों को।
वे भूलेंगी स्व-तन-मन को स्वर्ग की सम्पदा को।
हा! भूलेंगी जलद-तन की श्यामली मुर्ति कैसे॥43॥

जो प्यारा है अखिल-ब्रज के प्राणियों का बड़ा ही।
रोमों की भी अवलि जिसके रंग ही में रँगी है।
कोई देही बन अवनि में भूल कैसे उसे दे।
जो प्राणों में हृदय-तल में लोचनों में रमा हो॥44॥

भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो।
देखी जा के सु-छवि जिसकी लोचनों में रमी हो।
कैसे भूले कुँवर जिनमें चित्त ही जा बसा है।
प्यारी-शोभा निरख जिसकी आप ऑंखें रमी हैं॥45॥

कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें।
प्यारा-न्यारा निज-हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।
हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते।
उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥46॥

मीठे-मीठे वचन जिसके नित्य ही मोहते थे।
हा! कानों से श्रवण करती हूँ उसी की कहानी।
भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती।
जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनों में सदा थे॥47॥

मैं रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा।
या ऑंखों से पग-युगल की माधुरी देखती थी।
या है ऐसा कु-दिन इतना हो गया भाग्य खोटा।
मैं प्यारे के चरण-तल की धूलि भी हूँ न पाती॥48॥

ऐसी कुंजें ब्रज-अवनि में हैं अनेकों जहाँ जा।
आ जाती है दृग-युगल के सामने मूर्ति-न्यारी।
प्यारी-लीला उमग जसुदा-लाल ने है जहाँ की।
ऐसी ठौरों ललक दृग हैं आज भी लग्न होते॥49॥

फूली डालें सु-कुसुममयी नीप की देख ऑंखों।
आ जाती है हृदय-धन की मोहनी मुर्ति आगे।
कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा।
हो जाती है उदय उर में माधुरी अम्बुदों सी॥50॥

सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हों कुंज-पुंजें।
फूटें ऑंखें, हृदय-तल भी ध्वंस हो गोपियों का।
सारा वृन्दा-विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे।
तो भूलेंगे प्रथित-गुण के पुण्य-पाथोधि माधो॥51॥

आसीना जो मलिन-वदना बालिकायें कई हैं।
ऐसी ही हैं ब्रज-अवनि में बालिकायें अनेकों।
जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो।
रोना-धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना॥52॥

पूजायें त्यों विविध-व्रत औ सैकड़ों ही क्रियायें।
सालों की हैं परम-श्रम से भक्ति-द्वारा उन्होंने।
ब्याही जाऊँ कुँवर-वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यों न होंगी॥53॥

जो वे जी सो कमल-दृग की प्रेमिका हो चुकी हैं।
भोला-भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी हैं।
जो ऑंखों में सु-छवि बसती मोहिनी-मुर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यों वे धरा-मध्य होंगी॥54॥

नीला-प्यारा-जलद जिनके लोचनों में रमा है।
कैसे होंगी अनुरत कभी धूम के पुंज में वे।
जो आसक्ता स्व-प्रियवर में वस्तुत: हो चुकी हैं।
वे देवेंगी हृदय-तल में अन्य को स्थान कैसे॥55॥

सोचो ऊधो यदि रह गईं बालिकायें कुमारी।
कैसे होगी ब्रज-अवनि के प्राणियों को व्यथाएँ।
वे होवेंगी दुखित कितनी और कैसे विपन्ना।
हो जावेंगे दिवस उनके कंटकाकीर्ण कैसे!॥56॥

सर्वांगों में लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रबला औ महोछ्वास-शीला।
तोड़े देती प्रबल-तरि जो ज्ञान औ बुध्दि की है।
घातों से है दलित जिसके धर्य का शैल होता॥57॥

ऐसे ओखे-उदक-निधि में हैं पड़ी बालिकायें।
झोंके से है पवन बहती काल की वामता की।
आवर्तों में तरि-पतित है नौ-धानी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे हैं॥58॥

शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।
वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।
हा! सो शोभा-सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।
सारे प्यारे कुसुम-कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते॥59॥

जो मर्य्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।
फूँके देती परम-तप से प्राप्त सं-सिध्द को है।
ये बालाएँ परम-सरला सर्वथा अप्रगल्भा।
कैसे ऐसी मदन-दव की तीव्र-ज्वाला सहेंगी॥60॥