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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ४

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चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी।
जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है।
जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को।
कैसे ऐसे रति-रमण के बाण से वे बचेंगी॥61॥

जो हो के भी परम-मृदु है वज्र का काम देता।
जो हो के भी कुसुम-करता शैल की सी क्रिया है।
जो हो के भी 'मधुर बनता है महा-दग्ध-कारी।
कैसे ऐसे मदन-शर से रक्षिता वे रहेंगी॥62॥

प्रत्यंगों में प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।
जो हो जाता अति विषम है काल-कूटादिकों सा।
मद्यों से भी अधिक जिसमें शक्ति उन्मादिनी है।
कैसे ऐसे मदन-मद से वे न उन्मत्त होंगी॥63॥

कैसे कोई अहह उनको देख ऑंखों सकेगा।
वे होवेंगी विकटतम औ घोर रोमांच-कारी।
पीड़ायें जो 'मदन' हिम के पात के तुल्य देगा।
स्नेहोत्फुल्ला-विकच-वदना बालिकांभोजिनी को॥64॥

मेरी बातें श्रवण करके आप जो पूछ बैठें।
कैसे प्यारे-कुँवर अकेले ब्याहते सैकड़ों को।
तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च-ज्ञानी।
क्या ज्ञाता है न बुध-विदिता प्रेम की अंधता का॥65॥

आसक्ता हैं विमल-विधु की तारिकायें अनेकों।
हैं लाखों ही कमल-कलियाँ भानु की प्रेमिकाएँ।
जो बालाएँ विपुल हरि में रक्त हैं चित्र क्या है?
प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है॥66॥

जो धाता ने अवनि-तल में रूप की सृष्टि की है।
तो क्यों ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।
माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।
क्यों मोहेंगी न बहु-सुमना-सुन्दरी-बालिकाएँ॥67॥

जो मोहेंगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।
वे होवेंगी न यदि सफला क्यों न उद्भ्रान्त होंगी।
ऊधो पूरी जटिल इनकी हो गई है समस्या।
यों तो सारी ब्रज-अवनि ही है महा शोक-मग्ना॥68॥

जो वे आते न ब्रज बरसों, टूट जाती न आशा।
चोटें खाता न उर उतना जी न यों ऊब जाता।
जो वे जा के न मधुपुर में वृष्णि-वंशी कहाते।
प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के॥69॥

ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले बड़े हैं।
ऐसा न्यारा-रतन जिनको आज यों हाथ आया।
सारे प्राणी ब्रज-अवनि के हैं बड़े ही अभागे।
जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं॥70॥

भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग की रीति जानें।
कैसे बूझें अ-बुध अबला ज्ञान-विज्ञान बातें।
देते क्यों हो कथन करके बात ऐसी व्यथायें।
देखूँ प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे बता दो॥71॥

न्यारी-क्रीड़ा ब्रज-अवनि में आ पुन: वे करेंगे।
आँखें होंगी सुखित फिर भी गोप-गोपांगना की।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज में काननों में।
आवेंगे वे दिवस फिर भी जो अनूठे बड़े हैं॥72॥

श्रेय:कारी सकल ब्रज की है यही एक आशा।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी॥73॥

देखो सोचो दुखमय-दशा श्याम-माता-पिता की।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको।
गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो॥74॥

वसन्ततिलका छन्द

बोली स-शोक अपरा यक गोपिका यों।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ।
लौटाल श्याम-घन को ब्रज-मध्य लाओ॥75॥

अत्यन्त-लोक-प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी।
जैसा तुम्हें चरित मैं अब हूँ सुनाती।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा।
लावण्य-धाम फिर दिव्य-कला दिखावें॥76॥

भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनन्त-नभ निर्मल हो गया था।
थी छा गई ककुभ में अमिता सिताभा।
उत्फुल्ल सी प्रकृति थी प्रतिभात होती॥77॥

होता सतोगुण प्रसार दिगन्त में है।
है विश्व-मध्य सितता अभिवृध्दि पाती।
सारे-स-नेत्र जन को यह थे बताते।
कान्तार-काश, विकसे सित-पुष्प-द्वारा॥78॥

शोभा-निकेत अति-उज्ज्वल कान्तिशाली।
था वारि-बिन्दु जिसका नव मौक्तिकों सा।
स्वच्छोदका विपुल-मंजुल-वीचि-शीला।
थी मन्द-मन्द बहती सरितातिभव्या॥79॥

उच्छ्वास था न अब कूल विलीनकारी।
था वेग भी न अति-उत्कट कर्ण-भेदी।
आवर्त्त-जाल अब था न धरा-विलोपी।
धीरा, प्रशान्त, विमलाम्बुवती, नदी थी॥80॥