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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ५

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निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।
कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके।
निहित है तब मोहक पोर में।
सफलता, कलता, अनुकूलता॥81॥

मुरलिके कह क्यों तव-नाद से।
विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका।
किसलिए कल पा सकती नहीं।
पुलकती, हँसती, मृदु बोलती॥82॥

स्वर फुँका तव है किस मंत्र से।
सुन जिसे परमाकुल मत्त हो।
सदन है तजती ब्रज-बालिका।
उमगती, ठगती, अनुरागती॥83॥

तव प्रवंचित है बन छानती।
विवश सी नवला ब्रज-कामिनी।
युग विलोचन से जल मोचती।
ललकती, कँपती, अवलोकती॥84॥

यदि बजी फिर, तो बज ऐ प्रिये।
अपर है तुझ सी न मनोहरा।
पर कृपा कर के कर दूर तू।
कुटिलता, कटुता, मदशालिता॥85॥

विपुल छिद्र-वती बन के तुझे।
यदि समादर का अनुराग है।
तज न तो अयि गौरव-शालिनी।
सरलता, शुचिता, कुल-शीलता॥86॥

लसित है कर में ब्रज-देव के।
मुरलिके तप के बल आज तू।
इसलिए अबलाजन को वृथा।
मत सता, न जता मति-हीनता॥87॥

वंशस्थ छन्द

मदीय प्यारी अयि कुंज-कोकिला।
मुझे बता तू ढिग कूक क्यों उठी।
विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी।
विषादिता, संकुचिता, निपीड़िता॥88॥

प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की।
भला नहीं तो ब्रज-मध्य श्याम की।
कभी बजेगी अब क्यों सु-बाँसुरी।
सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी॥89॥

विषादिता तू यदि कोकिला बनी।
विलोक मेरी गति तो कहीं न जा।
समीप बैठी सुन गूढ़-वेदना।
कुसंगजा, मानसजा, मदंगजा॥90॥

यथैव हो पालित काक-अंक में।
त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय हैं।
तथैव माधो यदु-वंश में मिले।
अशोभना, खिन्न मना मुझे बना॥91॥

तथापि होती उतनी न वेदना।
न श्याम को जो ब्रज-भूमि भूलती।
नितान्त ही है दुखदा, कपाल की।
कुशीलता, आविलता, करालता॥92॥

कभी न होगी मथुरा-प्रवासिनी।
गरीबिनी गोकुल-ग्राम-गोपिका।
भला करे लेकर राज-भोग क्या।
यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता॥93॥

जहाँ न वृन्दावन है विराजता।
जहाँ नहीं है ब्रज-भू मनोहरा।
न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नहीं।
प्रवाहिता भानु-सुता प्रफुल्लिता॥94॥

करील हैं कामद कल्प-वृक्ष से।
गवादि हैं काम-दुधा गरीयसी।
सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा।
महामना, श्यामघना लुभावना॥95॥

जहाँ न वंशी-वट है न कुंज है।
जहाँ न केकी-पिक है न शारिका।
न चाह वैकुण्ठ रखें, न है जहाँ।
बड़ी भली, गोप-लली, समाअली॥96॥

न कामुका हैं हम राज-वेश की।
न नाम प्यारा यदु-नाथ है हमें।
अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की।
विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी॥97॥

विरक्ति बातें सुन वेदना-भरी।
पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही।
बना रहा है तब बोलना मुझे।
व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी॥98॥

नहीं-नहीं है मुझको बता रही।
नितान्त तेरे स्वर की अधीरता।
वियोग से है प्रिय के तुझे मिली।
अवांछिता, कातरता, मलीनता॥99॥

अत: प्रिये तू मथुरा तुरन्त जा।
सुना स्व-वेधी-स्वर जीवितेश को।
अभिज्ञ वे हों जिससे वियोग की।
कठोरता, व्यापकता, गँभीरता॥100॥