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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ - ६

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परन्तु तू तो अब भी उड़ी नहीं।
प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी?
न जा, वहाँ है न पधारना भला।
उलाहना है सुनना जहाँ मना॥101॥

वसंततिलका छन्द

पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया।
आई प्रभा प्रवह मान दुखी दृगों में।
होती विवर्ध्दित घटीं उर-वेदनायें।
ऐ पद्म-तुल्य पद-पावन चिन्ह प्यारा॥102॥

कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा।
कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ।
तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था।
कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे॥103॥

माथे चढ़ा मुदित हो उर में लगाऊँ।
है चित्त चाह सु-विभूति उसे बनाऊँ।
तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं।
सानन्द अंजित सुरंजित-लोचनों में॥104॥

लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।
तीसी-प्रसून-सम श्यामलता सलोनी।
कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी।
तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है॥105॥

संयोग से पृथक हो पद-कंज से तू।
जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है।
त्योंही मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो।
मैं भी अचिन्तित-अचेतनतामयी हूँ॥106॥

होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की।
पाती अलौकिक-पदार्थ वसुंधरा में।
होता स-शान्ति मम जीवन शेष भूत।
लेती पदांक तुझको यदि अंक में मैं॥107॥

हूँ मैं अतीव-रुचि से तुझको उठाती।
प्यारे पदांक अब तू मम-अंक में आ।
हा! दैव क्या यह हुआ? उह! क्या करूँ मैं।
कैसे हुआ प्रिय पदांक विलोप भू में॥108॥

क्या हैं कलंकित बने युग-हस्त मेरे।
क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था।
ए हैं अवश्य अति-निंद्य महा-कलंकी।
जो हैं प्रवंचित हुए पद-अर्चना से॥109॥

मैं भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय! मैंने।
अत्यन्त भ्रान्त बन के इतना न जाना।
जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े हैं।
वे हैं किसी अपर के कब हाथ आते॥110॥

पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया।
मैं बाँधती सरुचि अंचल में तुझे हूँ।
होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता।
देगी प्रकाश तम में फिरते दृगों को॥111॥
 
मालिनी छन्द

कुछ कथन करूँगी मैं स्वकीया व्यथायें।
बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा।
प्रति-पल बहती ही क्या चली जायगी तू।
कल-कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला॥112॥

कल-मुरलि-निनादी लोभनीयांग-शोभी।
अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तली कांति-शाली।
अयि पुलकित अंके आज भी क्यों न आया।
वह कलित-कपोलों कान्त आलापवाला॥113॥

अब अप्रिय हुआ है क्यों उसे गेह आना।
प्रति-दिन जिसकी ही ओर ऑंखें लगी हैं।
पल-पल जिस प्यारे के लिए हूँ बिछाती।
पुलकित-पलकों के पाँवड़े प्यार-द्वारा॥114॥

मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।
निज उर वह क्यों है संग जैसा बनाता।
विलसित जिसमें है चारु-चिन्ता उसी की।
वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता॥115॥

जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैंने।
वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।
जिस कुँवर बिना हैं याम होते युगों से।
वह छवि दिखलाता क्यों नहीं लोचनों को॥116॥

सब तज हमने है एक पाया जिसे ही।
अयि अलि! उसने है क्या हमें त्याग पाया।
हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती हैं।
वह प्रिय न हमारी ओर क्यों ताक पाया॥117॥

विलसित उर में है जो सदा देवता सा।
वह निज उर में है ठौर भी क्यों न देता।
नित वह कलपाता है मुझे कान्त हो क्यों।
जिस बिन 'कल' पाते हैं नहीं प्राण मेरे॥118॥

मम दृग जिसके ही रूप में हैं रमे से।
अहह वह उन्हें है निर्ममों सा रुलाता।
यह मन जिनके ही प्रेम में मग्न सा है।
वह मद उसको क्यों मोह का है पिलाता॥119।

जब अब अपने ए अंग ही हैं न आली।
तब प्रियतम में मैं क्या करूँ तर्कनायें।
जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती।
तब कुछ कहना ही कान्त को अज्ञता है॥120॥