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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ १

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अष्टम सर्ग : आश्रम-प्रवेश
छन्द : तिलोकी

था प्रभात का काल गगन-तल लाल था।
अवनी थी अति-ललित-लालिमा से लसी॥
कानन के हरिताभ-दलों की कालिमा।
जाती थी अरुणाभ-कसौटी पर कसी॥1॥

ऊँचे-ऊँचे विपुल-शाल-तरु शिर उठा।
गगन-पथिक का पंथ देखते थे अड़े॥
हिला-हिला निज शिखा-पताका-मंजुला।
भक्ति-भाव से कुसुमांजलि ले थे खड़े॥2॥

कीचक की अति-मधुर-मुरलिका थी बजी।
अहि-समूह बन मत्त उसे था सुन रहा॥
नर्तन-रत थे मोर अतीव-विमुग्ध हो।
रस-निमित्त अलि कुसुमावलि था चुन रहा॥3॥

जहाँ तहाँ मृग खड़े स्वभोले नयन से।
समय मनोहर-दृश्य रहे अवलोकते॥
अलस-भाव से विलस तोड़ते अंग थे।
भरते रहे छलाँग जब कभी चौंकते॥4॥

परम-गहन-वन या गिरि-गह्वर-गर्भ में।
भाग-भाग कर तिमिर-पुंज था छिप रहा॥
प्रभा प्रभावित थी प्रभात को कर रही।
रवि-प्रदीप्त कर से दिशांक था लिप रहा॥5॥

दिव्य बने थे आलिंगन कर अंशु का।
हिल तरु-दल जाते थे मुक्तावलि बरस॥
विहग-वृन्द की केलि-कला कमनीय थी।
उनका स्वगत-गान बड़ा ही था सरस॥6॥

शीतल-मंद-समीर वर-सुरभि कर बहन।
शान्त-तपोवन-आश्रम में था बह रहा॥
बहु-संयत बन भर-भर पावन-भाव से।
प्रकृति कान में शान्ति बात था कह रहा॥7॥

जो किरणें तरु-उच्च शिखा पर थीं लसी।
ललित-लताओं को अब वे थीं चूमती॥
खिले हुए नाना-प्रसून से गले मिल।
हरित-तृणावलि में हँस-हँस थीं घूमती॥8॥

मन्द-मन्द गति से गयंद चल-चल कहीं।
प्रिय-कलभों के साथ केलि में लग्न थे॥
मृग-शावक थे सिंह-सुअन से खेलते।
उछल-कूद में रत कपि मोद-निमग्न थे॥9॥

आश्रम-मन्दिर-कलश अन्य-रवि-बिम्ब-बन।
अद्भुत-विभा-विभूति से विलस था रहा॥
दिव्य-आयतन में उसके कढ़ कण्ठ से।
वेद-पाठ स्वर सुधा स्रोत सा था बहा॥10॥

प्रात:-कालिक-क्रिया की मची धूम थी।
जद्दघ-नन्दिनी के पावनतम-कूल पर॥
स्नान, ध्यान, वन्दन, आराधन के लिए।
थे एकत्रित हुए सहस्रों नारि-नर॥11॥

स्तोत्रा-पाठ स्तवनादि से ध्वनित थी दिशा।
सामगान से मुखरित सारा-ओक था॥
पुण्य-कीर्तनों के अपूर्व-आलाप से।
पावन-आश्रम बना हुआ सुरलोक था॥12॥

हवन क्रिया सर्वत्र सविधि थी हो रही।
बड़ा-शान्त बहु-मोहक-वातावरण था॥
हुत-द्रव्यों से तपोभूमि सौरभित थी।
मूर्तिमान बन गया सात्तिवकाचरण था॥13॥

विद्यालय का वर-कुटीर या रम्य-थल।
आश्रम के अन्यान्य-भवन उत्तम बड़े॥
परम-सादगी के अपूर्व-आधार थे।
कीर्ति-पताका कर में लेकर थे खड़े॥14॥

प्रात:-कालिक-दृश्य सबों का दिव्य था।
रवि-किरणें थी उन्हें दिव्यता दे रही॥
उनके अवलम्बन से सकल-वनस्थली।
प्रकृति करों से परम-कान्ति थी ले रही॥15॥