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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ २

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इसी समय अति-उत्तम एक कुटीर में।
जो नितान्त-एकान्त-स्थल में थी बनी॥
थीं कर रही प्रवेश साथ सौमित्रा के।
परम-धीर-गति से विदेह की नन्दिनी॥16॥

कुछ चल कर ही शान्त-मूर्ति-मुनिवर्य्य की।
उन्हें दिखाई पड़ी कुशासन पर लसी॥
जटा-जूट शिर पर था उन्नत-भाल था।
दिव्य-ज्योति उज्ज्वल-ऑंखों में थी बसी॥17॥

दीर्घ-विलम्बित-श्वेत-श्मश्रु, मुख-सौम्यता।
थी मानसिक-महत्ता की उद्बोधिनी॥
शान्त-वृत्ति थी सहृदयता की सूचिका।
थी विपत्ति-निपतित की सतत प्रबोधिनी॥18॥

देख जनक-नन्दिनी सुमित्रा-सुअन को।
वंदन करते मुनि ने अभिनन्दन किया॥
सादर स्वागत के बहु-सुन्दर-वचन कह।
प्रेम के सहित उनको उचितासन दिया॥19॥

बहुत-विनय से कहा सुमित्रा-तनय ने।
आर्य्या का जिस हेतु से हुआ आगमन॥
ऋषिवर को वे सारी बातें ज्ञात हैं।
स्वाभाविक होते कृपालु हैं पुण्य-जन॥20॥

पुण्याश्रम का वास धर्म-पथ का ग्रहण।
परम-पुनीत-प्रथा का पालन शुध्द-मन॥
क्यों न बनेगा सकल सिध्दि प्रद बहु फलद।
महा-महिम का नियमन-रक्षण संयमन॥21॥

है मेरा विश्वास अनुष्ठित-कृत्य यह।
होगा रघुकुल-कलस के लिए कीर्तिकर॥
करेगा उसे अधिक गौरवित विश्व में।
विशद-वंश को उज्ज्वल-रत्न प्रदान कर॥22॥

मुनि ने कहा वसिष्ठ देव के पत्र से।
सब बातें हैं मुझे ज्ञात, यह सत्य है-
लोक तथा परलोक-नयन आलोक है।
भव-सागर में पोत समान अपत्य है॥23॥

वंश-वृध्दि, प्रतिपालन-प्रिय-परिवार का।
वर्धन कुल की कीर्ति कर विशद-साधना॥
मानव बन करना मानवता अर्चना।
है सत्संतति कर्म, लोक-अराधना॥24॥

ऐसा ही सुत सकल-जगत है चाहता।
किन्तु अधिक वांछित है नृपकुल के लिए॥
क्योंकि नृपति वास्तव में होता है नृपति।
वही धरा को रहता है धारण किए॥25॥

इसीलिए कुछ धर्म, प्राण, नृपकुल-तिलक।
गर्भवती निज प्रिय-पत्नी को समय पर॥
कुलपति आश्रम में प्राय: हैं भेजते।
सब-लोक-हित-रत हो जिससे वंशधार॥26॥

रघुकुल-रंजन के अति-उत्तम कार्य का।
अनुमोदन करता हूँ सच्चे-हृदय से॥
कहियेगा नृप-पुंगव से यह कृपा कर।
सब कुछ होता सांग रहेगा समय से॥27॥

पुत्रि जनकजे! मैं कृतार्थ हो गया हूँ।
आप कृपा करके यदि आईं हैं यहाँ॥
वे थल भी हैं अब पावन-थल हो गए।
आपका परम-शुचि-पग पड़ पाया जहाँ॥28॥

आप मानवी हैं तो देवी कौन है।
महा-दिव्यता किसे कहाँ ऐसी मिली॥
पातिव्रत अति पूत सरोवर अंक में।
कौन पति-रता-पंकजिनी ऐसी खिली॥29॥

पति-देवता कहाँ किसको ऐसी मिली।
प्रेम से भरा ऐसा हृदय न और है॥
पति-गत प्राणा ऐसी हुई न दूसरी।
कौन धरा की सतियों की सिरमौर है॥30॥