भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ १

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

त्रयोदश सर्ग : जीवन-यात्रा
छन्द : तिलोकी

तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा।
पुण्यमयी-पावन-प्रवृत्ति की पूर्ति थीं॥
तपस्विनी-गण की आदरमय-दृष्टि में।
मानवता-ममता की महती-मूर्ति थीं॥1॥

ब्रह्मचर्य-रत वाल्मीकाश्रम-छात्रा-गण।
तपोभूमि-तापस, विद्यालय-विबुध-जन॥
मूर्तिमती-देवी थे उनको मानते।
भक्तिभाव-सुमनाजंलि द्वारा कर यजन॥2॥

अधिक-शिथिलता गर्भभार-जनिता रही।
फिर भी परहित-रता सर्वदा वे मिलीं॥
कर सेवा आश्रम-तपस्विनी-वृन्द की।
वे कब नहीं प्रभात-कमलिनी सी खिलीं॥3॥

उन्हें रोकती रहती आश्रम-स्वामिनी।
कह वे बातें जिन्हें उचित थीं जानती॥
किन्तु किसी दुख में पतिता को देखकर।
कभी नहीं उनकी ममता थी मानती॥4॥

देख चींटियों का दल ऑंटा छींटतीं।
दाना दे दे खग-कुल को थीं पालती॥
मृग-समूह के सम्मुख, उनको प्यार कर।
कोमल-हरित तृणावलि वे थीं डालतीं॥5॥

शान्ति-निकेतन के समीप के सकल-तरु।
रहते थे खग-कुल के कूजन से स्वरित॥
सदा वायु-मण्डल उसके सब ओर का।
रहता था कलकण्ठ कलित-रव से भरित॥6॥

किसी पेड़ पर शुक बैठे थे बोलते।
किसी पर सुनाता मैना का गान था॥
किसी पर पपीहा कहता था पी कहाँ।
किसी पर लगाता पिक अपनी तान था॥7॥

उसके सम्मुख के सुन्दर-मैदान में।
कहीं विलसती थी पारावत-मण्डली॥
बोल-बोल कर बड़ी-अनूठी-बोलियाँ।
कहीं केलिरत रहती बहु-विहगावली॥8॥

इधर-उधर थे मृग के शावक घूमते।
कभी छलाँगें भर मानस को मोहते॥
धीरे-धीरे कभी किसी के पास जा।
भोले-दृग से उसका बदन विलोकते॥9॥

एक द्विरद का बच्चा कतिपय-मास का।
जनक-नन्दिनी के कर से जो था पला॥
प्राय: फिरता मिलता इस मैदान में।
मातृ-हीन कर जिसे प्रकृति ने था छला॥10॥

पशु, पक्षी, क्या कीटों का भी प्रति दिवस।
जनक-नन्दिनी कर से होता था भला॥
शान्ति-निकेतन के सब ओर इसीलिए।
दिखलाती थी सर्व-भूत-हित की कला॥11॥

दो पुत्रों के प्रतिपालन का भार भी।
उन्हें बनाता था न लोक-हित से विमुख॥
यह ही उनकी हृत्तांत्री का राग था।
यह ही उनके जीवन का था सहज-सुख॥12॥

पाँवोंवाले दोनों सुत थे हो गए।
अपनी ही धुन में वे रहते मस्त थे॥
फिर भी वे उनको सँभाल उनसे निबट।
उनकी भी सुनतीं जो आपद्ग्रस्त थे॥13॥

थीं कितनी आश्रम-निवासिनी मोहिता।
आ प्रतिदिन अवलोकन करती थीं कई॥
नयनों में थे युगल-कुमार समा गए।
हृदयों में श्यामली-मूर्ति थी बस गई॥14॥

किन्तु सहृदया सत्यवती-ममता अधिक।
थी विदेह-नन्दिनी युगल-नन्दनों पर॥
जन्मकाल ही से उनकी परिसेवना।
वह करती ही रहती थी आठों-पहर॥15॥

इसीलिए वह थी विदेहजा-सहचरी।
इसीलिए वे उसे बहुत थीं मानती॥
उनके मन की कितनी ही बातें बना।
वह लड़कों को बहलाना थी जानती॥16॥

कभी रिझाती उन्हें वेणु वीणा बजा।
तरह-तरह के खेल वह खेलाती कभी॥
कभी खेलौने रखती उनके सामने।
स्वयं खेलौना वह थी बन जाती कभी॥17॥

विरह-वेदना से विदेहजा जब कभी।
व्याकुल होतीं तब थी उन्हें सँभालती॥
गा गा करके भाव-भरे नाना-भजन।
तपे-हृदय पर थी तर-छीटे डालती॥18॥

आत्रेयी की सत्यवती थी प्रिय-सखी।
अत: उन्होंने उसके मुख से थी सुनी॥
विदेहजा के विरह-व्यथाओं की कथा।
जो थी वैसी पूता जैसी सुरधुनी॥19॥

आत्रेयी थीं बुध्दिमती-विदुषी बड़ी।
विरह-वेदना बातें सुन होकर द्रवित॥
शान्ति-निकेतन में आयीं वे एक दिन।
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी के सहित॥20॥