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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ४

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एक बनी श्यामली-मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर-मध्य बसी गौरांगिनी॥
दोनों की चित-वृत्ति अचांचक-पूत रह।
किसी छलकती छबि के द्वारा थी छिनी॥46॥

उपवन था इस समय बना आनन्द-वन।
सुमनस-मानस हरते थे सारे सुमन॥
अधिक-हरे हो गये सकल-तरु-पुंज थे।
चहक रहे थे विहग-वृन्द बहु-मुग्ध बन॥47॥

राज-नन्दिनी के शुभ-परिणय के समय।
रचा गया था एक-स्वयंवर-दिव्यतम॥
रही प्रतिज्ञा उस भव-धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वज्र-सम॥48॥

धारणीतल के बड़े-धुरंधर वीर सब।
जिसको उठा सके न अपार-प्रयत्न कर॥
तोड़ उसे कर राज-नन्दिनी का वरण।
उपवन के अनुरक्त बने जब योग्य-वर॥49॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना॥
है विशालता उसकी विश्व-विमोहिनी।
सुर-पादप सा है प्रशस्त उसका तना॥50॥

है जनता-हित-रता लोक-उपकारिका।
है नाना-संताप-समूह-विनाशिनी॥
है सुखदा, वरदा, प्रमोद-उत्पादिका।
उसकी छाया है क्षिति-तल छबि-वर्ध्दिनी॥51॥

बड़े-भाग्य से उसी अलौकिक-विटप से।
दो लोकोत्तर-फल अब हैं भू को मिले॥
देखे रविकुल-रवि के सुत के वर-बदन।
उसका मानस क्यों न बनज-वन सा खिले॥52॥

देवि बधाई मैं देती हूँ आपको।
और चाहती हूँ यह सच्चे-हृदय से॥
चिरजीवी हों दिव्य-कोख के लाल ये।
और यशस्वी बनें पिता-सम-समय से॥53॥

इतने ही में वर-वीणा बजने लगी।
मधुर-कण्ठ से मधुमय-देवालय बना॥
प्रेम-उत्स हो गया सरस-आलाप से।
जनक-नन्दिनी ऑंखों से ऑंसू छना॥54॥

पद

बधाई देने आयी हूँ
गोद आपकी भरी विलोके फूली नहीं समाई हूँ॥
लालों का मुख चूम बलाएँ लेने को ललचाई हूँ।
ललक-भरे-लोचन से देखे बहु-पुलकित हो पाई हूँ॥
जिनका कोमल-मुख अवलोके मुदिता बनी सवाई हूँ।
जुग-जुग जियें लाल वे जिनकी ललकें देख ललाई हूँ॥
विपुल-उमंग-भरे-भावों के चुने-फूल मैं लाई हूँ।
चाह यही है उन्हें चढ़ाऊँ जिनपर बहुत लुभाई हूँ॥
रीझ रीझ कर विशद-गुणों पर मैं जिसकी कहलाई हूँ।
उसे बधाई दिये कुसुमिता-लता-सदृश लहराई हूँ॥1॥55॥

जंगल में मंगल होता है।
भव-हित-रत के लिए गरल भी बनता सरस-सुधा सोता है।
काँटे बनते हैं प्रसून-चय कुलिश मृदुलतम हो जाता है॥
महा-भयंकर परम-गहन-वन उपमा उपवन की पाता है।
उसको ऋध्दि सिध्दि है मिलती साधो सभी काम सधता है॥
पाहन पानी में तिरता है, सेतु वारिनिधि पर बँधता है।
दो बाँहें हों किन्तु उसे लाखों बाँहों का बल मिलता है॥
उसी के खिलाये मानवता का बहु-म्लान-बदन खिलता है।
तीन लोक कम्पितकारी अपकारी की मद वह ढाता है॥
पाप-तप से तप्त-धरा पर सरस-सुधा वह बरसाता है।
रघुकुल-पुंगव ऐसे ही हैं, वास्तव में वे रविकुल-रवि हैं॥
वे प्रसून से भी कोमल हैं, पर पातक-पर्वत के पवि हैं।
सहधार्मिणी आप हैं उनकी देवि आप दिव्यतामयी हैं॥
इसीलिए बहु-प्रबल-बलाओं पर भी आप हुई विजयी हैं।
आपकी प्रथित-सुकृति-लता के दोनों सुत दो उत्तम-फल हैं॥
पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, शिव-शिर-गौरव गंगाजल हैं।
पिता-पुण्य के प्रतिपादक हैं, जननी-सत्कृति के सम्बल हैं॥
रविकुल-मानस के मराल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।
मुनि-पुंगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोविद बन जावें॥
चिरजीवें कल-कीर्ति सुधा पी वसुधा के गौरव कहलावें॥2॥56॥

तिलोकी

जब तपस्विनी-सत्यवती-गाना रुका।
जनकसुता ने सविनय मुनिवर से कहा॥
देव! आपकी आज्ञा शिरसा-धार्य्य है।
सदुपदेश कब नहीं लोक-हित-कर रहा॥57॥

जितनी मैं उपकृता हुई हूँ आपसे।
वैसे व्यापक शब्द न मेरे पास हैं॥
जिनके द्वारा धन्यवाद दूँ आपको।
होती कब गुरु-जन को इसकी प्यास है॥58॥

हाँ, यह आशीर्वाद कृपा कर दीजिए।
मेरे चित को चंचल-मति छू ले नहीं॥
विविध व्यथाएँ सहूँ किन्तु पति-वांछिता।
लोकाराधन-पूत-नीति भूले नहीं॥59॥

तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी आपकी।
जैसी अति-प्रिय-संज्ञा है मृदुभाषिणी॥
हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल।
कहाँ मिलेंगी ऐसी हित-अभिलाषिणी॥60॥

अति उदार हृदया हैं, हैं भवहित-रता।
आप धर्म-भावों की हैं अधिकारिणी॥
हैं मेरी सुविधा-विधायिनी शान्तिदा।
मलिन-मनों में हैं शुचिता-संचारिणी॥61॥

कभी बने जलबिन्दु कभी मोती बने।
हुए ऑंसुओं का ऑंखों से सामना॥
अनुगृहीता हुई अति कृतज्ञा बनी।
सुने आपकी भावमयी शुभ कामना॥62॥

आप श्रीमती सत्यवती हैं सहृदया।
है कृपालुता आपकी प्रकृति में भरी॥
फिर भी देती धन्यवाद हूँ आपको।
है सद्वांछा आपकी परम-हित-करी॥63॥

दोहा

फैला आश्रम-ओक में परम-ललित-आलोक।
मुनिवर उठे समण्डली सांग-क्रिया अवलोक॥64॥