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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ४

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जो उलझन सम्मुख आई।
उसको तुमने सुलझाया॥
जो ग्रंथि न खुलती, उसको।
तुमने ही खोल दिखाया॥61॥

अवलोक तुमारा आनन।
है शान्ति चित्त में होती॥
हृदयों में बीज सुरुचि का।
है सूक्ति तुमारी बोती॥62॥

स्वाभाविक स्नेह तुमारा।
भव-जीव-मात्र है पाता॥
कर भला तुमारा मानस।
है विकच-कुसुम बन जाता॥63॥

प्रति दिवस तुमारा दर्शन।
देवता-सदृश थीं करती॥
अवलोक-दिव्य-मुख-आभा।
निज हृदय-तिमिर थीं हरती॥64॥

अब रहेगा न यह अवसर।
सुविधा दूरीकृत होगी॥
विनता बहनों की विनती।
आशा है स्वीकृत होगी॥65॥

माण्डवी का कथन सुन कर।
मुख पर विलोक दुख-छाया॥
बोलीं विदेहजा धीरे।
नयनों में जल था आया॥66॥

जर्जरित-गात अति-वृध्दा।
हैं तीन-तीन माताएँ॥
हैं जिन्हें घेरती रहती।
आ-आ कर दुश्चिन्ताएँ॥67॥

है सुख-मय रात न होती।
दिन में है चैन न आता॥
दुर्बलता-जनित- उपद्रव।
प्राय: है जिन्हें सताता॥68॥

मेरी यात्रा से अतिशय।
आकुल वे हैं दिखलाती॥
हैं कभी कराहा करती।
हैं ऑंसू कभी बहाती॥69॥

बहनों उनकी सेवा तज।
क्या उचित है कहीं जाना॥
तुम लोग स्वयं यह समझो।
है धर्म उन्हें कलपाना?॥70॥

है मुख्य-धर्म पत्नी का।
पति-पद-पंकज की अर्चा॥
जो स्वयं पति-रता होवे।
क्या उससे इसकी चर्चा॥71॥

पर एक बात कहती हूँ।
उसके मर्मों को छू लो॥
निज-प्रीति-प्रपंचों में पड़।
पति-पद सेवा मत भूलो॥72॥

अन्य स्त्री 'जा', न सकी यह।
है पूत-प्रथा बतलाती॥
नृप-गर्भवती-पत्नी ही।
ऋषि-आश्रम में है जाती॥73॥

अतएव सुनो प्रिय बहनो।
क्यों मेरे साथ चलोगी॥
कर अपने कर्तव्यों को।
कल-कीर्ति लोक में लोगी॥74॥

है मृदु तुम लोगों का उर।
है उसमें प्यार छलकता॥
मुझसे लालित पालित हो।
है मेरी ओर ललकता॥75॥

जैसा ही मेरा हित है।
तुम लोगों को अति-प्यारा॥
वैसी ही मेरे उर में।
बहती है हित की धरा॥76॥

तुम लोगों का पावन-तम।
अनुराग-राग अवलोके॥
है हृदय हमारा गलता।
ऑंसू रुक पाया रोके॥77॥

क्यों तुम लोगों को बहनो।
मैं रो-रो अधिक रुलाऊँ॥
क्यों आहें भर-भर करके।
पत्थर को भी पिघलाऊँ॥78॥

इस जल-प्रवाह को हमको
तुम लोगों को संयत रह॥
सद्बुध्दि बाँध के द्वारा।
रोकना पड़ेगा सब सह॥79॥

दस पाँच बरस आश्रम में।
मैं रहूँ या रहूँ कुछ दिन॥
तुम लोग क्या करोगी इन।
आश्रम के दिवसों को गिन॥80॥

जैसी कि परिस्थिति होगी।
वह टलेगी नहीं टाले॥
भोगना पड़ेगा उसको।
क्या होगा कंधा डाले॥81॥

मांडवी कहो क्या तुमने।
यौवन-सुख को कर स्वाहा॥
पति-ब्रह्मचर्य को चौदह।
सालों तक नहीं निबाहा॥82॥

इस खिन्न उर्मिला ने है।
जो सहन-शक्ति दिखलाई॥
जिसकी सुधा आते, मेरा।
दिल हिला ऑंख भर आई॥83॥

क्या वह हम लोगों को है।
धृति-महिमा नहीं बताती॥
क्या सत्प्रवृत्ति की शिक्षा।
है सभी को न दे जाती॥84॥

ऑंसू आयेंगे आवें।
पर सींच सुकृत-तरु-जावें॥
तो उनमें पर-हित द्युति हो।
जो बूँद बने दिखलावें॥85॥

श्रुतिकीर्ति मांडवी जैसी।
महनीय-कीर्ति तू भी हो॥
मत बिचल समझ मधु-मारुत।
चल रही अगर लू भी हो॥86॥

उर्मिला सदृश तुझ में भी।
वसुधवलम्बिनी-धृति हो॥
जिससे भव-हित हो ऐसी।
तीनों बहनों की कृति हो॥87॥

मत रोना भूल न जाना।
कुल-मंगल सदा मनाना॥
कर पूत-साधना अनुदिन।
वसुधा पर सुधा बहाना॥88॥

दोहा

इसी समय आये वहाँ, धीर-वीर-रघुबीर।
बहनें विदा हुईं बरसा नयनों से बहु-नीर॥89॥