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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ १

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सप्तम सर्ग : मंगल यात्रा
छन्द : मत्तसमक

अवध पुरी आज सज्जिता है।
बनी हुई दिव्य-सुन्दरी है॥
विहँस रही है विकास पाकर।
अटा अटा में छटा भरी है॥1॥

दमक रहा है नगर, नागरिक।
प्रवाह में मोद के बहे हैं॥
गली-गली है गयी सँवारी।
चमक रहे चारु चौरहे हैं॥2॥

बना राज-पथ परम-रुचिर है।
विमुग्ध है स्वच्छता बनाती॥
विभूति उसकी विचित्रता से।
विचित्र है रंगतें दिखाती॥3॥

सजल-कलस कान्त-पल्लवों से।
बने हुए द्वार थे फबीले॥
सु-छबि मिले छबि निकेतनों की।
हुए सभी-सद्य छबीले॥4॥

खिले हुए फूल से लसे थल।
ललामता को लुभा रहे थे॥
सुतोरणों के हरे-भरे-दल।
हरा भरा चित बना रहे थे॥5॥

गड़े हुए स्तंभ कदलियों के।
दलावली छबि दिखा रहे थे॥
सुदृश्य-सौन्दर्य-पट्टिका पर।
सुकीर्ति अपनी लिखा रहे थे॥6॥

प्रदीप जो थे लसे कलस पर।
मिली उन्हें भूरि दिव्यता थी॥
पसार कर रवि उन्हें परसता।
उन्हें चूमती दिवा-विभा थी॥7॥

नगर गृहों मन्दिरों मठों पर।
लगी हुई सज्जिता ध्वजाएँ॥
समीर से केलि कर रही थीं।
उठा-उठा भूयसी भुजायें॥8॥

सजे हुए राज-मन्दिरों पर।
लगी पताका विलस रही थी॥
जटित रत्नचय विकास के मिस।
चुरा-चुरा चित्त हँस रही थी॥9॥

न तोरणों पर न मंच पर ही।
अनेक-वादित्र बज रहे थे॥
जहाँ तहाँ उच्च-भूमि पर भी।
नवल-नगारे गरज रहे थे॥10॥

न गेह में ही कुलांगनायें।
अपूर्व कल-कंठता दिखातीं॥
कहीं-कहीं अन्य-गायिका भी।
बड़ा-मधुर गान थी सुनाती॥11॥

अनेक-मैदान मंजु बन कर।
अपूर्व थे मंजुता दिखाते॥
सजावटों से अतीव सज कर।
किसे नहीं मुग्ध थे बनाते॥12॥

तने रहे जो वितान उनमें।
विचित्र उनकी विभूतियाँ थीं॥
सदैव उनमें सुगायकों की।
विराजती मंजु-मूर्तियाँ थीं॥13॥

बनी ठनी थीं समस्त-नावें।
विनोद-मग्ना सरयू-सरी थी॥
प्रवाह में वीचि मध्य मोहक।
उमंग की मत्तता भरी थी॥14॥

हरे-भरे तरु-समूह से हो।
समस्त उद्यान थे विलसते॥
लसी लता से ललामता ले।
विकच-कुसुम-व्याज थे विहँसते॥15॥

मनोज्ञ मोहक पवित्रतामय।
बने विबुध के विधान से थे॥
समस्त-देवायतन अधिकतर।
स्वरित बने सामगान से थे॥16॥

प्रमोद से मत्त आज सब थे।
न पा सका कौन-कंठ पिकता॥
सकल नगर मध्य व्यापिता थी।
मनोमयी मंजु मांगलिकता॥17॥

दिनेश अनुराग-राग में रँग।
नभांक में जगमगा रहे थे॥
उमंग में भर बिहंग तरु पर।
बड़े-मधुर गीत गा रहे थे॥18॥

इसी समय दिव्य-राज-मन्दिर।
ध्वनित हुआ वेद-मन्त्र द्वारा॥
हुईं सकल-मांगलिक क्रियायें।
बही रगों में पुनीत-धरा॥19॥

क्रियान्त में चल गयंद-गति से।
विदेहजा द्वार पर पधारीं॥
बजी बधाई मधुर स्वरों से।
सुकीर्ति ने आरती उतारी॥20॥