अब आता नहीं मजा, अफ़साना-ए-गम सुनाने में
हमको खुदा से काम आ पड़ा, आखिरी जमाने में
मंजिले इश्क को दरकिनार कर बेवफ़ा रकीब के संग
रात गुजारी, उसे मिलती अबद हमारे गम के पैमाने में
यह जानकर भी कि हमने मौत को गले लगा रखा है
खुदा मस्जिद में बैठा रहा, आया नहीं हमारे आशियाने में
एक मुद्दत लगी, मुहब्बत की जिस आग को
सुलगाने में, उसे आया मजा झटके से बुझाने में
मेरे पाँव को जो काँटे रंग न सके, उससे रंज कैसा
उम्र बीती जोशे-इश्क को यह बात समझाने में