अब बर्फ़ की खैर नहीं / ओम पुरोहित ‘कागद’
शहर भर में
बर्फ़ गिर रही हैं
और इस पर भी हम
राख में
आग ढूंढ रहे हैं
जब कि, हम जानते हैं
कि, राख आग ही कि बनती हैं।
यह आग
न तो हम ने जलाई थी
और न तो हम ने बुझाई
इस लिए हम
यह कतई नहीं मान सकते
कि, यहां कभी आग जली थी।
हम फिलहाल
बासी राख में से
आग की चिनगियां ढूंढ़ रहे हैं
यदि हमें मिलीं
तो हम फुस बटोरेंगे
फूंक मारेगें
और कमरा गर्माने से पहले
शहर भर पर छा रही
समूची बुर्फ़ पिघलायगें
पहाड़ों को नगां करेंगे
समूचे दोहन के लिए।
यदि हमें
दिन-रात की मेहनत
और समूची राख के दोहन के बाद
एक भी चिनगी न मिली
तो हम शहर को लांघ कर आयेंगे
पहाड़ो को रौंदेंगें
कुचलेंगे बर्फ़ को
और
निकाल कर उसके सीने से पत्थर
जलायेंगे आग
आपस में रगड़ कर
और फिर
पूरे बदन पर
अंगारे सहज कर लाएंगे
एक-एक गांव
एक-एक शहर के लिए
ताकि वे बर्फ़ को फिर
पड़ने न दें
उस जमने के दें।
उस के बाद
हर गॉव
हर ढाणी
हर शहर
आग सहेज कर रखेंगे
क्योंकि, वे तब तक जान जायेंगे
कि, बर्फ़ घातक होती है
वह शहर से होती हुई
दिल-ओ-दिमाग पर छा कर
शासन करने
सिंहासन पर आ ढूकती है
और फिर
पूरे प्रजातंत्र की धमनियों में
खून जमने लगता है।
खून का जमाना
सार्वजनिक रुप से घातक है
इसीलिए
इसी की हमें चिंता है
और फिलहाल
राख से चिनगियां ढूंढ़ रहे है
ताकि मौसम समझ ले
कि, अब बर्फ़ की खैर नहीं।