कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है / रमा द्विवेदी
कि नारी सदा ही सताई गई है,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कभी अपनों के खातिर बलिदान देती,
कभी उसकी बलि चढाई गई है....,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कभी प्यार से सबने लूटा है उसको,
कभी मारकर वो जलाई गई है...,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कभी खुद ही जौहर दिखाती रही है,
कभी उससे जौहर कराई गई है.....,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कभी जन्मदाता ने बेंचा है उसको,
कभी सन्यासिनी वो बनाई गई है..,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
समूहों में मिल कर नोंचा-घसीटा,
फिर सडकों में निर्वस्त्र घुमाई गई है...,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कि ले करके पैसे बने तुम हमारे,
फिर दासी वो कैसे बनाई गई है...,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
ये किस्से-कहानी की बातें नही हैं,
कि कोठे पे ज़बरन बिठाई गई है...,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
ज़रा सोच लो जुल्म करने से पहले,
तुम्हारी ही संगिनी क्यों बनाई गई है..,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
बने जिसलिए हम,न अधिकार पाया,
फिर क्यों-कर यह रचना रचाई गई है..,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कभी जी के देखो हमारी जगह पर,
कि कितना वो सूली पे चढाई गई है?
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कि कैसे चलेगा यह संसार सारा?
गर तुम्हीं से यह दुनिया चलाई गई है..,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।
कि कैसे जिएं दर्द सह करके इतना?,
हुआ न खुदा, न खुदाई हुई है...,
कभी खुद मिटी है, मिटाई गई है।