क्या ऐसे कम-सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे / फ़राज़
क्या ऐसे कम-सुख़न<ref>कम बोलने वाला</ref> से कोई गुफ़्तगू<ref>बातचीत</ref> करे
जो मुस्तक़िल<ref>अटल</ref> सुकूत<ref>मौन</ref> से दिल को लहू करे
अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम<ref>मेल-जोल छोड़ना</ref> का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़<ref>प्रारम्भ</ref> तू करे
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत<ref>उत्तम</ref> है ज़िन्दगी
खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे
अब तो ये आरज़ू है कि वो जख़्म<ref>घाव</ref> खाइये
ता-ज़िन्दगी<ref>जीवन भर</ref> ये दिल न कोई आरज़ू करे
तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र<ref>लज्जित दृष्टि</ref>
अब कोई हादिसा<ref>दुर्घटना</ref> ही तेरे रु-ब-रू <ref>समक्ष</ref>करे
चुपचाप अपनी आग में जलते रहो "फ़राज़"
दुनिया तो अर्ज़े--हाल<ref>हालत सुनाने</ref> से बे-आबरू<ref>अपमानित</ref> करे