अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए(ग़ज़ल) / अली सरदार जाफ़री
(‘आतश' की ज़मीन में)
कभी ख़न्दाँ,<ref>प्रसन्न</ref> कभी गिरियाँ,<ref>उदास</ref> कभी रक़्साँ<ref>नाचते हुए</ref> चलिए
दूर तक साथ तिरे, उम्रे-गुरेज़ाँ, चलिए
ज़ौक़े-आराइश-ओ-गुलकारी-ए-अश्क़-ए-ख़ूँ<ref>ख़ून के आँसुओं की सजावट का शौक</ref> से
कोई भी फ़स्ल हो, फ़िरदौस-ब-दामाँ चलिए
रस्मे-देरीनःए-आलम<ref>संसार की पुरानी प्रथा</ref> को बदलने के लिए
रस्मे-देरीनःए-आलम से गुरेज़ाँ<ref>हटकर</ref> चलिए
आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा
अपनी पलकों पे लिए जश्ने-चराग़ाँ चलिए
शोलः-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बादे-समूम
शोलः-ए-जाँ की तरह चाक-गिरीबाँ चलिए
अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन
दिल की राहों से सूए-मंज़िले-इन्साँ चलिए
ग़म नयी सुब्ह के तारे का बहुत है लेकिन
लेके अब परचमे-ख़ुर्शीदे ज़र-अफ़शाँ चलिए
सर-ब-क़फ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आ जाए
कूचःए-दार में सरमस्तो-ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए