भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झिप चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष! / महादेवी वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झिप चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष!

अतल सागर के शयन से,

स्वप्न के मुक्ता-चयन से,

विकल कर तन,

चपल कर मन, किरण-अंगुलि का मुझे लाया बुला निर्देश!


वीचियों-सी पुलक-लहरी,

शून्य में बन कुहक ठहरी,

रँग चले दृग,

रच चले पग,

श्यामले घन-द्वीप उजले बिजलियों के देश!


मौन जग की रागिनी थी,

व्यथित रज उन्मादिनी थी,

हो गये क्षण,

अग्नि के कण,

ज्वार ज्वाला का बना जब प्यास का उन्मेष!



स्निग्ध चितवन प्राणदा ले,

चिर मिलन हित चिर विदा ले,

हँस घुली मैं,

मिट चली मैं,

आँक उल्का अक्षरों में सब अतीत निमेष!


अमिट क्रम में नील-किसलय,

बाँध नव विद्रुम-सुमन-चय,

रेख-अर्चित,

रूप-चर्चित,

इन्द्रधनुषी कर दिया मैंने कणों का वेश!


अब धरा के गान ऊने,

मचलते हैं गगन छूने,

किरण-रथ दो,

सुरभि-पथ दो,

और कह दो अमर मेरा हो चुका सन्देश!