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ड्राइवर/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़

छुट्टी की प्रार्थना
नकारी जा चुकी है
गिड़गिड़ाकर
चिल्लाकर
ड्राइवर
बस की तरफ़ लौट गया है
हरकारा लौट गया है गाँव

ड्राइवर-सीट पर बैठा हुआ ड्राइवर
इस वक़्त सिर्फ़ ड्राइवर है
ड्राइवर के सामने
अब सिर्फ़ सड़क है
आँखें
सिर्फ़ सड़क देखती हैं
दिमाग़ सिर्फ़ सड़क सोचता है
कान
सिर्फ़ सड़क सुनते हैं
यात्री देखते हैं
पहाड़ हरियावल पेड़ बादल आसमान
यात्री सोचते हैं
शहर बच्चे घर बाज़ार दुकान
घुमावदार सड़क पर
स्टेयरिंग घुमाते
ड्राइवर के हाथ
पीठ की मदद नहीं करते
पीठ खुजली सहती चली जा रही है

सड़क से एक जनाज़ा गुज़रता है
ड्राइवर ब्रेक लगाता है
ड्राइवर को खाँसी के साथ खून उलीचती
पत्नी का ख़याल आता है
ड्राइवर सोचता है
इस वक़्त यह ख़याल
ख़तरनाक है

ड्राइवर को मालूम है
सड़क के सिवा
कुछ भी सोचने से
सड़क पर अँधेरा छा जाता है
बस के सवारों को
अँधेरा खा जाता है

लेकिन मुक़ाम पर पहुँचा ड्राइवर
सिर्फ़ ड्राइवर नहीं है
हाड़ और माँस का
एक अदद आदमी है
जिसे ठेका शराब देसी
ठीक मरहम की तरह
याद आता है.