विनयावली / तुलसीदास / पद 111 से 120 तक / पृष्ठ 2
पद 113 से 114 तक
(113)
माधव ! अब न द्रवहु केहिं लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमल पद देखे।1।
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं , मैं न दास, तैं स्वामी।
तब लगि जो न दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी।2।
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत , श्रुति गावैं।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहिं, अब न तजे बनि आवै।3।
जनक-जननि , गुरू-बंधु, सुहृद-पति, सब प्रकार हितकारी।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं , अस कछु जतन बिचारी।4।
सुनु अदभ्र करूना बारिजलोचन मोचन भय भारी।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी।5।
(114)
माधव ! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं।1।
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु ! केहि कारन दया न लागी।2।
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान -भवन तनु दियेहु नाथ, सेउ पाय न मैं प्रभु जाना।3।
बेनु करील, श्रीखंड बसंतहिं दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कछु किमि पावै।4।
सब प्रकार मैं कठिन , मृदुल हरि,दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे।5।