भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पद 251 से 260 तक / पृष्ठ 5

Kavita Kosh से
(पद 251 से 260 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 5 से पुनर्निर्देशित)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पद संख्या 259 तथा 260

 (259)

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी, कहौं, बलि , बेदकी न , लोक कहा कहैगो?
प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ, दुहूँ भाँति दीनबंधु ! दीन दुख दहैगो।1।

मैं तो दियो छाती पबि, लयो कलिकाल दबि, साँसति सहत, परबस को न सहैगो?
बाँकी बिरूदावली बनैगी पाले ही कृपालु ! अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो।2।

 करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत, आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर, लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो?।3।

काल पाय फिरत दसा दयालु! सबहीकी, तोहि
पै नाथके निबाहेई निबहैगो।4।

(260)

साहिब उदास भये दास खास खीस होत , मेरी कहा चली? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।
लोकमें न ठाँउ, परलोकको भरोसो कौन? हौं बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।
बचन-करम-हिये कहौं राम! सौंह किये, तुलसी तो , बलि जाउँ , रामनाम ही ते लह्यो हौं।1।

 करम, सुभाउ, काल, काम, कोह, लोभ, मोह-ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।
 छोरिबेको महाराज , बाँधिबेको कोटि भट, पाहि प्रभु! पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं।2।

 रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार, दूधको जर्यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।
रटत-रटत लट्यो ,जाति -पाँति -भाँति घट्यो,जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं।3।

अनत चह्यो न भलो, सुपथ सुचाल चल्यो , नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार, अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं।4।