विनयावली / तुलसीदास / पद 271 से 279 तक / पृष्ठ 3
पद संख्या 275 तथा 276
(275)
द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा , दुख -दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ।1।
तनु जनतेऊ कुटिल कीट ज्यों, तज्यो मातु-पिताहूँ।
काहेको रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ।2।
दुखित देखि संतन कह्यो , सोचै जनि मन माँहू।
तोसे -पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओरे बिनाहूँ।3।
तुलसी तिहारो भये ,भयो सुखी प्रीति-प्रतीति बिनाहू।
नामकी महिमा, सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ, सिहाहूँ।4।
(276)
कहा न कियो, कहाँ ल गयो, सीस कहि न नायो?
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो।1।
आस -बिबस खास दाा ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।
हाहा करि दीनता कही द्वार -द्वार बार-बार, परी न छार, मुख बायो।2।
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो।
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचाायो।4।
श्रवण-नयन-मृग मन लगे, सब थल पतितायो।
मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो।5।
दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरूदावली बुलायो।6।