पनरमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो
दुर्योधन के युद्ध - घोषणा केॅ स्वीकार करो केॅ,
प्राण-प्राण में पांचजन्य के रोर अपार भरी कॅे।
रंथ चढ़ी हस्तिनापुरी सें लौटो गेलै कृष्ण;
डेग डेग पर कौरवदल के कदाचार उचरी केॅ।
नीतिमंत होलै मर्माहत नीतिहीन निर्णय सें,
महामंत्रिपद छोड़ी देलकै तुरत अटल निश्चय सें।
जहाँ रहै तप-तेज साधना युग के त्याग विराट,
धीरें धीरें वहीं जाय खड़वैलै शील-विनय सें।
”राज-काज सें भार्गवजित् अपना केॅ मुक्त करलियै,
महाराज के आगू में माथा के भार धरलिय।
बहुत दिनॅ में छाती पर धरलॅ भारी रं पत्थल;
हँटलै आय, सहज लागै छै, मन के पीर हरलियै।
महाराज के बस सं बाहर दुर्योधन युवराज,
मद सें भरलॅ जेना जंगल में एक्कड़ गजराज।
बेरथ वहाँ मंत्रणा, बेरथ आरो कोय उपायो;
बेरथ रहन। छेलै चाँपी आत्मा के आवाज।
सँसरी गेलै कबेॅ हाथ सें सुलभ समय के पासा;
जन-जन में पसरी गेलॅ छै पीड़ा-कलह-हताशा।
सपना होलै निश्छल जीवन-भय सें मुक्त समाज;
लेकिन वे दिश में ताकै के फुरसत कहाँ जरा-सा।
एक भूख बस केना बनतै मन के गोटी लाल,
नीति-नियम ताखा पर राखी सबसें ऊँचॅ गाल।
ई विचार शून्यता भरलकै गुज-गुज घोर अन्हरियाँ
महा प्रलय आसार समेटी मँड़राबै छै काल।
सुय्या के नोंकॅ पर भूमी आँटै छै जत्तॅ-टा,
बिना युद्ध के नै मिलना छै पाण्डव केॅ ओत्तॅ-टा।
मन के पोर-पोर केॅ काटै दुर्जय एक कचोट;
चक्रवर्ति राजा लेॅ छेलै पाँच गाँव कत्तॅ-टा?
जरासंघ, शिशुपाल, कंस के अत्याचारी हाथ,
झलकी उठलै कृष्णॅ के आँखी में एक्के साथ।
जन्मॅ सें अन्याय खिलाफॅ में करलॅ संघर्ष;
दु्रपद सुता के हाहाकारी मुखड़ा निपट अनाथ।
फुटलै वाणी सें फुफकारी मन के दृढ़ संकल्प,
”बाकी अखनी धराधाम के देना स्वच्छ विकल्प।
माफ करो देना अन्यायो केॅ अधर्म के जीत;
जे असह्य छे, भलें बलुक धरती पर उतरेॅ कल्प।“
कृष्णॅ के घोषणा कान में रही-रही अटकै छै,
कल्पांतर के बात प्राण में काँटा रं खटकै छै।
तय्यो दुर्योधन अड़लॅ छै सत्यानाश करै पर;
जेना हुट्ठी सतपथ छोड़ी कुपथ-कुपथ भटकै छै।
हमरा छेॅ अफसोच निभावेॅ ने सकलॉ दायित्व,
असफल सतपथ पर लानै में कुरुकुल के स्वामित्व।
करियै छमा, विकट धारॅ में बहना छै कालॅ केॅ;
होना निश्चित कुरुक्षेत्र में रुण्ड-मुण्ड के नृत्य।
कटतै भाय भाय सें, मचतै सब दिश हाहाकार,
लहु-लुहान होते मरघट में भरतबंश के प्यार।
धुलतै मांग करुण रोदन में डुबतै बहू-पुतोहू,
सोची-सोची केॅ लागै छै चारो दीश अन्हार।
”ध्यान सफलता-असफलता के छोड़ी कर्म करै के,
कर्म-विरत जीवन, जीवन नै-ई विश्वास वरै के।
राज-काज सें मुक्त रही केॅ परजा के कल्याण;
जुटलॅ रहॅ करै में अविरत, जन के पीर हरै के।
जल में कमल अलिप्त मगर जल हो जीवन आधार,
यही वासतं कमल बनै छै जल केरॅ सिंगार।
पद के मोह बनै छै बन्धन, पद सें दूर रही भी;
फल सें विरत कर्मरत रहबॅ ही जिनगी के सार।
नवयुग के आगमन पुरातन युग केरॅ परतन पर,
कलभी रोपै विदुर! प्रकृति हरियाली के धरखन पर।
जन्म-मृत्यु के खेल सनातन, बाते की साचे के?
ईश्वर ने जाँचै छै धीरज मनुखॅ के जीवन भर।
दुर्योधन ने वासुदेव के मत के करी उपेक्षा,
नवयुवक केॅ नेतॅ देॅ देलकै पूर्ण करै लेॅ इच्छा।
पुरुषारथ के मान यही में, मानी केॅ चलना छ;
पराक्रमी ने ही देॅ पारेॅ महाकाल केॅ दीक्षा।“
रथ के घर्धर नाद ठमकलै समरसता तोड़ी केॅ
महाकाल के दूत उतरलै की तामस ओढ़ी केॅ?
या ईरा आगिन करछाहा झुरखी सहित संदेह,
आबौ रहलॅ छै शीलॅ सें सरपट मुँह मोड़ो केॅ?
वर्त्तमान पर लौटी ऐलै गत-भविष्य के चिन्तन,
झुकलै गोड़ॅ पर आबो केॅ अभिमानी दुर्योधन।
जेना नबै उदंड सहजता सें पौरुष आगू में;
या, लाभॅ के लोभ, बुझी केॅ स्वार्थ-सिद्धि आश्वासन।
”तौरहै पर छै युद्ध पितामह तोर्है पर अभिमान,
तीन पुस्त सें रक्षित छै यै सिंहासन के मान।
भार्गवजयी बनो, अर्जित करने छॅ गौरव-गाथा;
रखना छौं ई बेर पितामह! कौरवकुल के नाम।
यै धरती पर युद्ध करेॅ के तोरा आगूँ वीर?
कत्तेॅ देरी दुश्सन रहतै युद्ध भूमि में थीर?
युद्ध-घोषणा में छिपलॅ छै महासुयश के मौका;
निष्कंटक हस्तिनापुरी के सिंहासन तकदीर।“
”निबंल के बल अपराजित अवध्य भार्गव भगवान,
ओज-तेज के सार उतरलॅ धरती पर दिनमान।
बर्बरता के मूल उछादै में हुनिय युद्धॅ केॅ;
देने छै असली परिभाषा, असली गौरव-मान।
लेकिन, अम्बा के लोरॅ लें डिगलै तनियें डेग,
व्यक्ति-धर्म विपरीत उमड़लै मन में कटु आवेग।
अपराजित वीरता पिछड़लै-लहलह रं आगिन के,
जेना सँसरे तेज, तनी-टा पाबी पानी-नेग।
बरि´ॅ सबदिन सें दुर्योधन छै अनीति सें नीति,
हम्में नै भार्गवजित, सत के व्यक्ति-धर्म के जीत।
हीलॅ रहै भयंकर युद्धॅ में एत्तै-टा, लेखा;
सत्य जहाँ छै, विजय वहीं छै-यहेॅ सनातन रीत।“
”सत्य कहाँ छै - चक्रवर्त्ति राजॅ के बटबारा में?
कुल के रीत बिसारी बहना अवसर के धारा में?
नीति कहाँ छै? एक शान्ति लेॅ चिरअशान्ति के मोल?
पाँचो दिश दै गाँव विरमना दुश्मन के घेरा में?
वारणावत, माकन्दी, बृकथल-अविथल आरो एक,
गाँव सिमाना पर के माँग के कृष्णॅ के टेक।
सोचै काबिल बात तनिक छै, राजनीति पाण्डव के;
जानो-बूझी काँटॅ बुनना छेलै मात्र अलेख।
मृत्यु श्रेष्ठ, पावै सें धुक-धुक जीयै के लाचारी,
यहेॅ विचारी, हमें करलियै युद्धॅ के तैयारी।
वीरें भोगै छै धरती केॅ, युद्ध वीर के धर्म;
जे रहतै से चक्रवर्त्ति सिंहासन के अधिकारी।
जिनगी भर में एक बेर हो मृत्युँ हाँक पार छै,
पराक्रमी नै जिनगी भर में दू बेरा हार छै।
फेरू कौन छगुन्ता? युद्धॅ सें फेरू डरना का?
कायर ने ही नीति-नाम पर युद्धॅ केॅ टार छै।“
”युद्ध -घोषणा में नै केवल कायर-वीर सवाल,
जुड़लॅ छै युद्धॅ सें सौसे मनुष्यता के हाल।
छेलै यहेॅ सवाल घोषणा तें पहिने सोचै कै;
राजा के दायित्व-विश्व-जन संस्कृति के प्रतिपाल।
मुख सें बात, धनुष स छुटलॅ तीर धुरी नं आबै,
छोड़बैया चाहेॅ कत्तो माथॅ धूनी पछताबै।
यै लेली दरकार करै के पहिन्हैं सोच-विचार;
तर्क-ज्ञान ने अनुचित केॅ नै कभी उचित ठहराबै।“
”चर्चा के की बात पितामह! छूटी गेलै तार,
युद्ध-विमुख होतै कखनू नै जे छै सच्चा वीर।
सेनापति के भार सम्हारै के बिनती स्वीकारी;
छोड़ी दियै छगुन्ता सब-टा, तजियै मन के पीर।
दोष अगर यै युद्धॅ में तेॅ हम्में स्वीकारै छीं,
भरी कनखुरो दोख न ओकरॅ केकर्हौ पर वार छीं।
जे देना छै इतिहासॅ केॅ मान या कि अपमान;
सब टा, लेवै भुजा - पसारी जीतै या हारै छीं।
हमरा नै छेॅ मोह तनिक, जिनगी के सिंहासन के,
मान मगर रखना लाजिम वशागत अनुशासन के।
एक राज में दू राजा - कल्पना जटिल जजाल;
हमरा नै स्वीकार पितामह! जटिल रूप शासन के।
चुप भेलै युवराज निकाली मन के भार-गुमार,
मन्हैं-मन्हैं भीष्में नापलकै युग केरॅ बिस्तार-
”बीती गेलै समय टालना युद्धॅ केॅ सम्भव नै;
यै लेली जा सेना साजॅ हुवॅ सजग-तयार।