पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ - १
(1)
अकल्पनीय की कल्पना
शार्दूल-विक्रीडित
सोचे व्यापकता-विभूति प्रतिभा है पार पाती नहीं।
होती है चकिता विलोक विभुता विज्ञान की विज्ञता।
लोकातीत अचिन्तनीय पथ में है चूकती चेतना।
कोई व्यक्ति अकल्पनीय विभु की कैसे क कल्पना॥1॥
आती है सफरी समूह-उर में क्या सिंधु की सिंधुता?
क्या ज्ञाता खगवृन्द है गगन के विस्तार-व्यापार का?
पाती है न पिपीलका अवनि की सर्वाङग्ता का पता।
कैसे मानव तो महामहिम की सत्ता-महत्ता कहे॥2॥
ऐसा अंजन पा सका न जिससे होती तमो-हीनता।
कोई दे न सका उसे सदय हो स्वाभाविकी दिव्यता।
जाला दूर हुआ, न अंधा दृग का आलोक-माला मिली।
कैसे लोक विलोक लोकपति को लोकोपयोगी बने॥3॥
जो है अंत-विहीन अंत उसका कैसे किसी को मिले।
कैसे हो वह गीत गीत रच के जो देव गोतीत है।
कैसे चित्त सके विचार उसको जो चित्त का चित्त है।
कैसे लोचन लें विलोक, वह तो है लोचनों में छिपा॥4॥
वंशस्थ
कहे उसे तो मत मानवीय क्यों।
बने न क्यों मूक त्रिकलोक की गिरा।
न वेद द्वारा यदि वेदनीय है।
अभेद के भेद, विभेद की कथा॥5॥
गीत
मूल-भूत मन-वचन-अगोचर भव-नियमन-व्रतधारी।
चिन्तन मनन मंत्र अवलंबन विनयन-रत अविकारी॥1॥
विभु है विश्व-विभूति-विधायक।
अपनी सकल अलौकिकता में लौकिकता-परिचायक॥2॥
उसका है अकुंठ पद, इससे है वैकुंठ-निवासी।
है वह सत्य-स्वरूप, इसलिए सत्य-लोक का वासी॥3॥
क्षीर पिलाकर है अनन्त जीवों का जीवन-दाता।
इसीलिए वह क्षीर-सिंधु का स्वामी है कहलाता॥4॥
जैसे किसी बीज में विटपी का विकास है बसता।
जैसे रवि के विपुल करों में है आलोक विलसता॥5॥
वैसे ही विलास से उसके लोक-लोक हैं बनते।
पलक मारते नभ-तल-जैसे वर वितान हैं तनते॥6॥
बहु सित भानु भानु उस वारिधिक के हैं विविध बलूले।
उस महान उपवन में तारक हैं प्रसून सम फूले॥7॥
तेज उसी के तेज-पुंज से तेज-बीज है बोता।
बिरच विपुल आलोक-पिंड को लोक-तिमिर है खोता॥8॥
वह समीर जीवन-प्रवाह बन जो प्रतिदिन है बहता।
उस अनन्त-जीवन के जीवन से है जीवित रहता॥9॥
सलिल की सलिलता उससे ही सहज सरसता पाती।
रसा उसी के रस-सेचन से है रसवती कहाती॥10॥
द्रुत-विलम्बित
विधु-प्रदीप-सुमौक्तिक-तारका-
लसित ले नभ थाल स्व-हस्त में।
किस महाप्रभु की अति प्रीति से
प्रकृति है करती नित आरती॥7॥
शार्दूल-विक्रीडित
लोकों का लय हो गये प्रलय में भू लोप लीला हुए।
नाना भूत-प्रसूत वाष्प अणु के संसारव्यापी बने।
छाये कज्जल-से प्रगाढ़ तम के आये महाशर्वरी।
सोता है विभु शेप-भूत भव में, है शेषशायी अत:॥8॥
गीत
लोकपति का ललाम-तम लोक।
है अति लोकोत्तर लीलामय भरित ललित आलोक॥1॥
आलोकित उससे हैं नभ-तल के अगणित रवि-सोम।
विलसित हैं असंख्य तारक-चय, विदलित है तमतोम॥2॥
उसके उपवन हर लेते हैं नंदन-वन का गर्व।
कल्प-वेलि हैं सकल बेलियाँ, कल्पद्रुम दुरम सर्व॥3॥
विकच बने रहते जो सब दिन, जिनमें है रस-सार।
जिनके सौरभ से सुरभित होता सारा संसार॥4॥
उसमें सतत लसित मिलते हैं ऐसे सुमन अपार।
जिनपर विश्व वसंत-मधुप बन करता है गुंजार॥5॥
उसमें हैं अमोल फल ऐसे जो हैं सुधा-समान।
जिनसे मिली अमरता सुर को, रहा अमर-पद-मान॥6॥
होती सदा वहाँ ध्वनि ऐसी जो है सरस अपार।
जिससे ध्वनित हुआ करता है भव-उर-तंत्री-तार॥7॥
पारस-रचित वहाँ की भू है कामधेनु कमनीय।
है रज-राजि रुचिर चिन्तामणि रत्न-राशि रमणीय॥8॥
सुधा-भ हैं अमित सरोवर जो है सिंधु-समान।
परम सरसतामय सरिता बन करती है रस-दान॥9॥
वहाँ विलसते मूर्तिमन्त बन सब सुख हास-विलास।
सब चिन्मय हैं, सबमें करता है आनन्द निवास॥10॥
मूलभूत है पंचभूत का सब जग जीवन निजस्व।
वही सकल संसार-सार है सुरपुर का सर्वस्व॥11॥
शार्दूल-विक्रीडित
नाना लोक समस्त भूतचय में सत्तामयी सृष्टि में।
सारी मूर्त्त अमूर्त्त ज्ञात अथवा अज्ञात उत्पत्ति में।
जो है व्यापक, क्या वही न विभु है, क्या है न कर्त्ता वही।
है संचालक कौन दिव्य कर से संसार के सूत्र का॥10॥
गीत
विभु है भव-विभूति-अवलंबन।
सत-रज-तम कमनीय विकासक प्रकृति-हृदय-अभिनंदन।
उसके परिचालन-बल से ही जग परिचालित होता।
वही सकल संसृति-वसुधा में सृजन-बीज है बोता।
नील वितान तान उसमें है तेज-पुंज उपजाता।
नव-निर्मित तारक-चय से है त्रिभुवन-तिमिर भगाता।
पावन पवन विश्व-तन को है प्राण-दान कर पाता।
उसको आतप-तपे विश्व का है वर व्यंजन बनाता।
रस-संचय कर सकल लोक को परम सरस करता है।
उसमें जीव-निवास विधायक नव-जीवन भरता है।
हरी विविध बाधक बाधाएँ बनकर धरा-विधाता।
दे वह विभूतियाँ जिससे है भूत भव-विभव पाता।
उसके ही कर में है कृति-संचालन-सूत्र दिखाता।
नियति-नटी को दारु-योषिता सम है वही नचाता॥11॥