पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - १
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(1)
गेय गान
शार्दूल-विक्रीडित
आराधे भव-साधना सरल हो साधें सुधासिक्त हों।
सारी भाव-विभूति भूतपति की हो सिध्दियों से भरी।
पाता की अनुकूलता कलित हो धाता विधाता बने।
पाके मादकता-विहीन मधुता हो मोदिता मेदिनी॥1॥
सारे मानस-भाव इन्द्रधानु-से हो मुग्धता से भ।
देखे श्यामलता प्रमोद-मदिरा मेधा-मयूरी पिये।
न्यारी मानवता सुधा बरस के दे मोहिनी मंजुता।
भू को मेघ मनोज्ञ-मूर्ति कर दे माधुर्य-मुक्तामयी॥2॥
वसंत-तिलका
तो क्यों न लोकहित लालित हो सकेगा।
जो लालसा ललित भाव ललाम होगे।
तो क्यों अलौकिक अनेक कला न होगी।
जो कल्प-बेलि सम कामद कल्पना हो॥3॥
द्रुतविलम्बित
सुजनता जनता-हितकारिता।
मधुरता मृदुता यदि है भली।
मनुजता-रत सादर तो सुनें।
सुकवि की कलिता कवितावली॥4॥
विकल है करती यदि काल की।
कलि-विभूति-मयी विकरालता।
बहु समाहित हो बुध तो सुनें।
हितकरी 'हरिऔध'-पदावली॥5॥
शार्दूल-विक्रीडित
है आलोकित लोक-लोक किसकी आलोक-माला मिले।
पाते हैं उसको सुरासुर कहाँ जो सत्य सर्वस्व है।
है संयोजक कौन सूर-राशि का, स्वर्गीय सम्पत्ति का।
कोई क्यों उसको असार समझे, संसार में सार है॥6॥
न्यारी शान्ति मिली कहीं विलसती, है क्रान्ति होती कहीं।
प्याला है रस का कहीं छलकता, है ज्वाल-माला कहीं।
है आहार, विहार, वैभव कहीं; संहार होता कहीं।
है अत्यन्त अकल्पनीय भव की क्रीड़ामयी कल्पना॥7॥