भूमिका / धरती होने का सुख / केशव
मैं तुम्हें ढूँढने निकला/तुम/मुझे/अफसोस /कि हम/ख़ुद को ढूँढते रहे/एक दूसरे के मरुस्थल में। केशव की कविताएं उस दूसरे को जानने का जुनूनी प्रयत्न है, इसलिए नहीं कि उसे जाने बिना संसार को नहीं जाना जा सकता, बल्कि इसलिए कि उसे जाने बिना ख़ुद को नहीं जाना जा सकता । इस यात्रा में वे अकेले हैं, संपूर्णता की असंभव चाह लिये सूक्षम को भेदने, जानने और पा लेने के जुनून के साथ : झुर्रियाँ सच हैं /देह का/ स्पर्श/ देहातीत/हम दोनो/जीवित हैं स्पर्श में/ देह में मृत। देह के उस पार जाने का यत्न, कर देह के सिवा नहीं, यह रास्ता तो है, मंज़िल नहीं, वह देहातीत अवस्था, जहाँ मेरा-तेरा का भेद मिट जाए, तू मुझमें है, मैं तुझ में हूँ। आसन नहीं है किसी दूसरे को इस तरह जानना, यह छलाँग पहले अपने बाहर, फिर अपने भीतर लगती है, उस दूसरे को जानना, वह दूसरा ही हो जाना है। केशव की कविताएँ उनके लिए हैं, जो अपनी तालाश में हैं, प्रेम की ऐसी नदी, जो बहती तो जीवन के बीचों-बीच है,पर दिखाई नहीं देती, बहुत कोशिश करो तो सुनाई देती है आवाज़ उसकी : जब तुम्हारे कान अपनी ही छाती से लगे हों। वह अवस्था कि उस दूसरे को सुनना, खुद को सुनने जैसा हो पाए, उस दूसरे को कहना, खुद को कहने जैसा। प्रेम, सत्य,जीवन,ईश्वर अकथनीय हैं। इसलिए हम इन्हें बार-बार कहते और इन्हें इनकी असंभव जगहों से उठाकर दुनिया में लाकर अपने लिए संभव बनाते हैं। ये केशव की कविता का दुःस्साहस है। जीवन एक दुःस्साहसिक यात्रा तो है, न कहीं से, न कहीं तक। इस यात्रा में अपनी कल्पना को अपना सच बनाना ही कविता का लक्ष्य है, संसार के बरक्स खड़ा एक सृजनात्मक संसार, जो उस धरातल से कहीं ज्यादा साफ़ दिखता है। वास्तविक संसार वास्तव में अधूरा ही है। केशव की कविताएं इसे पूरा करती हैं, अपने रचे एक नए काल्पनिक संसार में, जो कल्पना भी नहीं है, न सच ही। वह दोनो के बीच खड़ा है, जहाँ से सच इतना साफ़ पहले कभी नहीं दिखा, जहाँ से कल्पना इतनी सच कभी नहीं लगी। इन कविताओं में हम केशव की दुनिया में एक अंतरंग बहाव से झाँक सकते हैं,और शायद यह तय कर सकते हैं कि वे सबकी यात्रा में किस रूप में शामिल हैं। न केवल मनुष्य का भीतरी संसार, बल्कि इनकी कविताएँ मनुष्य जीवन के लगभग सभी पहलुओं का स्पर्श करती हैं,उसकी गहराई,ऊँचाई और बिडम्बनाओं से एकमेक। उसके आलोक,अंधकार,खबसूरती,दुःख और संघर्ष में लिथड़ी हुई। अपनी ताज़ा कविताओं में केशव ने कुछ ऐसे विंध्यांचल भी लाँघे हैं, जिनसे समकालीन कवि प्रायः बचते रहे हैं। देश और दुनिया को बाँटकर स्वार्थ-साधना में लगे लोगों को केशव के कवि ने आग्रेय नेत्रों से देखा है, क्योंकि आम आदमी यहाँ पूरी शिद्दत के साथ उपस्थित है।
प्रकृति भी अपनी पूरी भव्यता और उदात्तता के साथ केशव की कविताओं में मौजूद है। पहाड़ी परिवेश के मूँह बोलते चित्र इधर की इनकी कविताओं में बहुतायत से नज़र आए हैं, जिनके ज़रिये हम पहाड़ी जीवन को बहुत गहराई और करीब से देख और जान सकते हैं। केशव प्रकृति को किसी पर्यटक की दृष्टि से नहीं देखते, जिसके पास कैमरा-आँख तो होती है, पर उस जंगल में भीतर उतरने का साहस नहीं। वे उसके भीतर उतरते हैं, उसे मात्र अनावृत्त करने नहीं, बल्कि उसके रहस्यों में अपना रहस्य खोजने। इस मायने में इनकी कविताएं अपने समकालीन कवियों में सबसे अलग हैं और उनमें एक निर्दोष ताज़गी है, गहराई है और है भीतर ही भीतर उतरते चले जाने की व्याकुलता, शायद उस उदगम तक, जहाँ से जीवन निस्सृत हो रहा है........ -जया जादवानी