मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - ३१
उसका ही विस्तार विषद ढो रहा अनन्त गगन मधुकर
मन्दाकिनी सलिल में प्रवहित उसकी ही शुचिता निर्झर
उस प्रिय का अरविन्द चरण रस सकल ताप अभिशाप शमन
टेर रहा पीयूशवर्षिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।151।।
मिलन स्वप्न कर पूर्ण जाग मनमोहन मंदिर में मधुकर
रसमय सच्चालोकवलय में बनकर शून्य बिखर निर्झर
प्राणेश्वर मंदिर के दीपक की बाती बन तिल तिल जल
टेर रहा है शून्यसहचरी मुरली तेरा मुरलीधर।।152।।
प्राणों में अनुभूति न तो सब व्यर्थ साधनायें मधुकर
सपनों का कंकाल ढो रहा मृगमरीचिका में निर्झर
सुन अक्षत शाश्वत कलरव से तेरा मन कर उद्वेलित
टेर रहा है चिरअभीप्सिता मुरली तेरा मुरलीधर।।153।।
महाप्राण बन महाप्राण कर परिवर्तन अपना मधुकर
धो दे प्रियतम प्रीति किरण से चिर तमिस्र अंतर निर्झर
गुण अवगुण पंकिल मारुत में कर मत कंपित बोध शिखा
टेर रहा है गतिरनुत्तमा मुरली तेरा मुरलीधर।।154।।
बरसें तेरे विरही लोचन उमड़े सुधि बदली मधुकर
तरल पीर बन दृग पलकों से झरने दे स्नेहिल निर्झर
प्रभु अनुराग घटा पंकिल हो प्राण गगन कोना कोना
टेर रहा सच्चाम्बुपयोदा मुरली तेरा मुरलीधर।।155।।