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मौजें बहम हुईं तो किनारा नहीं रहा / परवीन शाकिर

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मौजें बहम हुई तो किनारा नहीं रहा
आँखों में कोई ख़्वाब दुबारा नहीं रहा

घर बच गया की दूर थे साइका-मिज़ाज
कुछ आसमान का भी इशारा नहीं रहा

भूला है कौन एड़ लगाकर हयात को
रुकना ही रख्श ए जाँ को गंवारा नहीं रहा

जब तक वो बेनिशान रहा दस्तरस में था
खुशनाम हो गया तो हमारा नहीं रहा

गुमगश्ता ए सफ़र को जब अपनी ख़बर मिली
रस्ता दिखाने वाला सितारा नहीं रहा

कैसी घड़ी में तर्क ए सफ़र का ख़्याल है
जब हम में लौट आने का यारा नहीं रहा