रह गई माँ क्षीण क्षिप्रा-सी,
मगर अब भी पिता हैं नर्मदा के घाट।
याद आती है मुझे शीतल गझिन अमराई,
केरियाँ खाती बहिन, शाखें बटोरे भाई;
सिर झुकाए बालियों-सी माँ-
मगर तटबंध-से ऊँचे पिता के ठाट।
आस्था जो नहा-धोकर ईद पर पढ़ती नमाज,
माटियाँ खाते हुए, जो बीनती रहती अनाज;
हिंदवी-सी ये प्रकृति सी माँ-
मगर अब भी पिता गोया पछाँही जाट।
गंध सौंधी बाटियों की, दूध की हल्की उजास,
पुरजनों से परिजनों तक संधि याकि समास;
पिता सायेदार वह वटवृक्ष-
नीचे बिछी माँ
जैसे निखरनी खाट।