वह तुम ही हो पिता / रश्मि भारद्वाज
माँ के लिए लिखी हर कविता में
तुम एक अघोषित ख़लनायक थे पिता
तुम्हारी बोली के कई शब्दों को मैंने अपने शब्दकोश से बहिष्कृत कर दिया है
क्योंकि वे मेरे भाषा घर में नहीं समाते थे
और तन कर खड़ी हो गयी हूँ तुम्हारे उस पुरुष के ख़िलाफ़
जो अक्सर अपनी स्त्री के आंसुओं का कारण बन जाता है
तुम्हारे जूते कभी नहीं समाएंगे मेरे पैरों में
ना तुम्हारे पीछे छूट गए कदमों के निशान नापने की मेरी कोई उत्कंठा है
तुम्हारे ईश्वर ने पहले से ही तय कर रखी है मेरी सीमा रेखा
और तुम्हारे घर में मेरे लिए सुरक्षित कर दिया गया है एक अथिति कक्ष
तुम्हारे उपनाम, तुम्हारी जाति की शुद्धता, तुम्हारे दम्भ
मैं सबसे दूर भागती रही
और मेरे बचपन के पिता कहीं पीछे छूटते गए
लेकिन फिर भी मेरी धमनियों में
जो रक्त बन दौड़ता रहा
वह तुम ही थे
मेरे चेहरे की ज़िद में जिसे पढ़ा जाता रहा ,वह तुम्हारा ही चेहरा था
मैं इनसे कभी नहीं भाग सकी
और हर बार तुमसे मिल कर लौटने पर
तुम्हारे थोड़े से और झुक आए कंधों,
चेहरे पर बढ़ आयीं कुछ और लकीरों को याद कर
जो मेरी आँखों से बह आता है
वह तुम ही हो पिता