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कोई नहीं, कोई नहीं / राम दरश मिश्र

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आहट हुई देखो ज़रा
कोई नहीं, कोई नहीं!

आना जिन्हें था, आ चुके
गठरी सुखों की लादकर
कुछ द्वार से आए
कई दीवार ऊँची फाँदकर

लेकिन है कोई और ही
जिसकी प्रतीक्षा है मुझे
यों ही गईं रातें कई
मैं नींद भर सोई नहीं!

मेले यहाँ सजते रहे
हँसती रहीं रंगीनियाँ
सादी हँसी को गेह की
डँसती रहीं रंगीनियाँ

बनते गए सब अजनबी
पागल हवस की होड़ में
इक दर्द मेरे साथ था
मैं भीड़ में खोई नहीं!

मेरी चमन की वास
उसके घर गई, अच्छा लगा
उसके अजिर के अश्रु से
मैं भर गई, अच्छा लगा

लेकिन चुभे जब खार
अपने ही दुखों के देह में
आँसू उमड़ भीतर उठे
पर चुप रही, रोई नहीं!