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मैं तो आवारा शायर हूँ मेरी क्या वक़'अत / फ़राज़

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मैं तो आवारा शायर हूँ मेरी क्या वक़'अत
एक दो गीत परेशान से गा लेता हूँ

गहे गहे किसी नाकाम शराबी की तरह
एक दो ज़हर के साग़र भी चढ़ा लेता हूँ

तू के इक वादी-ए-गुलरंग की शहज़ादी है
एक बेकार से इन्साँ के लिये वक़्फ़ न हो

तेरे ख़्वाबों के जज़ीरों में बड़ी रौनक़ है
एक अंजान से तूफ़ाँ के लिये वक़्फ़ न हो