भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शुद्ध प्रेम श्रीराधा का है नित्य / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शुद्ध प्रेम श्रीराधा का है नित्य पूर्ण, विभु नित्य अपार।
किन्तु देखता कभी नित्य, बढ़ता रहता पल-पल सुखसार॥
अति गुरु, वह सर्वातिशायि, अति गौरवमय, अत्यन्त महान।
गौरव-‌अहंकारसे विरहित किंतु पवित्र दैन्यकी खान।
बढ़ी हु‌ई वक्रिमा अनोखी आती उसमें बिना प्रयास।
किंतु सुनिर्मल, सरल, बढ़ाती नित शुचिता-सरलता-मिठास॥
नित्य विरुद्ध धर्म-गुण-‌आश्रययुक्त शुद्ध राधा-‌अनुराग।
धन्य-धन्य प्रियतम-स्वभाव-‌अनुगत, नित शुचि विरागमय राग॥