एक तारा / सुमित्रानंदन पंत
नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त
डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त।
पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर,
ज्यों वीणा के तारों में स्वर।
खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन,
धूसर भुजंग-सा जिह्म, क्षीण।
झींगुर के स्वर का प्रखर तीर, केवल प्रशान्ति को रहा चीर,
सन्ध्या-प्रशान्ति को कर गभीर।
इस महाशान्ति का उर उदार, चिर आकांक्षा की तीक्ष्ण-धार
ज्यों बेध रही हो आर-पार।
अब हुआ सान्ध्य-स्वर्णाभ लीन,
सब वर्ण-वस्तु से विश्व हीन।
गंगा के चल-जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोपल
है मूँद चुका अपने मृदु-दल।
लहरों पर स्वर्ण-रेख सुन्दर, पड़ गई नील, ज्यों अधरों पर
अरुणाई रप्रखर-शिशिसे डर।
तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग, उड़ गया, खोल निज पंख सुभग,
किस गुहा-नीड़ में रे किस मग!
मृदु-मृदु स्वप्नों से भर अंचल, नव नील-नील, कोमल-कोमल,
छाया तरु-वन में तम श्यामल।
पश्चिम-नभ में हूँ रहा देख
उज्ज्वल, अमन्द नक्षत्र एक!
अकलुष, अनिन्द्य नक्षत्र एक ज्यों मूर्तिमान ज्योतित-विवेक,
उर में हो दीपित अमर टेक।
किस स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप वह लिए हुए? किसके समीप?
मुक्तालोकित ज्यों रजत-सीप!
क्या उसकी आत्मा का चिर-धन स्थिर, अपलक-नयनों का चिन्तन?
क्या खोज रहा वह अपनापन?
दुर्लभ रे दुर्लभ अपनापन, लगता यह निखिल विश्व निर्जन,
वह निष्फल-इच्छा से निर्धन!
आकांक्षा का उच्छ्वसित वेग
मानता नहीं बन्धन-विवेक!
चिर आकांक्षा से ही थर् थर्, उद्वेलित रे अहरह सागर,
नाचती लहर पर हहर लहर!
अविरत-इच्छा ही में नर्तन करते अबाध रवि, शशि, उड़गण,
दुस्तर आकांक्षा का बन्धन!
रे उडु, क्या जलते प्राण विकल! क्या नीरव, नीरव नयन सजल!
जीवन निसंग रे व्यर्थ-विफल!
एकाकीपन का अन्धकार, दुस्सह है इसका मूक-भार,
इसके विषाद का रे न पार!
चिर अविचल पर तारक अमन्द!
जानता नहीं वह छन्द-बन्ध!
वह रे अनन्त का मुक्त-मीन अपने असंग-सुख में विलीन,
स्थित निज स्वरूप में चिर-नवीन।
निष्कम्प-शिखा-सा वह निरुपम, भेदता जगत-जीवन का तम,
वह शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र, वह सम!
गुंजित अलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन-अन्धकार,
हलका एकाकी व्यथा-भार!
जगमग-जगमग नभ का आँगन लद गया कुन्द कलियों से घन,
वह आत्म और यह जग-दर्शन!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२