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क्यों न बोलें ये व्यथाएँ / राहुल शिवाय

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झूल जाओ प्राण तज दो
क्यों न बोलें ये व्यथाएँ

जो हमेशा ही सहेजा
नग्न होकर वह पड़ा था
गिद्ध नर के सामने बस
मान माँसल चीथड़ा था

देह पर ज्यों चल रही हैं
नाग-सी अब भी भुजाएँ

था यही अपराध तन का
वह किसी को भा गया था
खेलने की चीज थी जो
खेलकर छोड़ा गया था

है हुआ अभियोग तन पर
औ घृणा करती दिशाएँ

पाँडवी आक्रोश भी जब
व्यस्त है सबकुछ भुलाकर
नृप बना धृतराष्ट्र सम जब
है सभा चुप, सिर झुकाकर

हस्तिनापुर लिख रहा है
कृष्ण बिन जब विवशताएँ