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दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें,
छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान साने मैं ।
कहै रतनाकर गम्भीर सोई ऊधव कौ,
धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ॥
औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ,
बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं ।
पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने कांपि,
जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं ॥24॥