भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

21-30 मुक्तक / प्राण शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

            २१
क्यों न लगाऊँ अपने अधरों से प्याला को
क्यों न पियूँ मस्ती देनेवाली हाला को
मेरे जीवन का सर्वस्व बनी है वह तो
क्यों न बिठाऊँ अपने सिर पर मधुबाला को
            २२
दुनिया में ऐसे भी युग आते हैं भाई
अच्छे–अच्छे नाम बदल जाते हैं भाई
पात्र सुरा के बन जाते हैं मधु के प्याले
और सुरालय मधु-घर कहलाते हैं भाई
            २३
रूखी-सूखी औ’ कंगाली शाम न बीते
और अमावस जैसी काली शाम न बीते
मदिरा का सम्मान बढ़ाना है गर साक़ी
मतवालों की कोई खाली शाम न बीते
            २४
बिन दर्शन के लौट गया तू मधुबाला के
आँगन से ही लौट गया तू मधुशाला के
तुझसे बढ़कर कौन अभागा है दुनिया में
घूँट पिये ही लौट गया तू बिन हाला के
             २५
कभी-कभी मस्ती के लमहों को जीने को
जीवन के गहरे से घावों को सीने को
सच्ची-सच्ची बात बता उपदेशक हमको
तेरा चित्त नहीं करता है मधु पीने को
             २६
सूरत को ही तक ले पगले मधुबाला की
मिट्टी को ही छू ले पगले मधुशाला की
चित्त नहीं करता गर तेआ मधु पीने को
खुशबू ही कुछ ले ले पगले तू हाला की
            २७
दोस्त, तुझे मस्ती पाना है यदि हाला में
सेवा भाव निरखना है यदि मधुशाला में
थोड़ी सी तकलीफ़ उठानी होगी तुझको
चलकर तुझको जाना होगा मधुशाला में
             २८
क्या रक्खा है उपदेशों को अपनाने में
इन मकड़ी के जालों में मन उलझाने में
छोड़ सभी ये माथा पच्ची मेरे प्यारे
आ तुझको मैं ले चलता हूँ मयखाने में
              २९
गूँज छलक जाते प्यालों की मतवाली है
मयखाने में खुशहाली ही खुशहाली है
साक़ी, तेरा मयखाना है या है जन्नत
हर पीने वाले के चेहरे पर लाली है
              ३०
जी करता है सदा रहूँ टेरे साक़ी को
यारो, मैं हर वक़्त रहूँ घेरे साक़ी को
इसीलिए आ जाता हूँ मैं मयखाने से
ताकि मिले आराम ज़रा मेरे साक़ी को