भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

31-40 मुक्तक / प्राण शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

            ३१
चाक जिगर के अपने सब सीने आया है
मदिरा को फिर मस्ताना पीने आया है
मधुशाला के बिन कैसे रह सकता है वो
लो, साक़ी फिर मस्ताना जीने आया है
            ३२
बात बड़ी ही हैरानी वाली लगती है
मधु के प्यासों की क़िस्मत काली लगती है
नीरस लोग यहाँ पर वो भी मयखाने में
दोस्त, सुराही इसीलिए खाली लगती है
            ३३
साक़ी, मय और पैमाने की बात करेंगे
मयख़ाने में मस्ती की बरसात करेंगे
रोक सके तो रोके कोई मतवालों को
पीते और पिलाते सारी रात करेंगे
             ३४
तब भी प्यालों में होती थी मधु की छलकन
तब भी मचला करता था मदिरा को हर मन
रामायण का युग हो या हो महाभारत का
लोग किया करते थे नित मदिरा का सेवन
              ३५
घुट-घुट कर पीड़ा को सहना ठीक नहीं है
यारों से दिल की ना कहना ठीक नहीं है
मदिरा के दो प्याले पीकर भी ए साथी
दुखी तुम्हारा बन कर रहना ठीक नहीं है
              ३६
मधुशाला में जाने की कोई भूल न कर तू
मधु का गीत सुनाने की कोई भूल न कर तू
दोस्त, अगर तुझमें मधु के प्रति मान नहीं है
पीने और पिलाने की कोई भूल न कर तू
              ३७
निर्णय ले बैठेगा तुझको ठुकराने का
अवसर खो बैठेगा तू मदिरा पाने का
बैठ सलीके से ए प्यारे वरना तुझको
रस्ता दिखला देगा साक़ी घर जाने का
             ३८
जीवन में तुम आज अलौकिक रस बरसा दो
मदमस्ती का एक अनोखा लोक रचा दो
पीने का आनंद बड़ा आएगा साक़ी
अपने शुभ हाथों से मुँह को जाम लगा दो
             ३९
तन-मन को बहलाने का इक साज़ यही है
अपने मधुमय जीवन का अन्दाज़ यही है
दिन को साग़र शाम को साग़र मेरे प्यारे
सच पूछो तो अपना इक हमराज़ यही है
              ४०
मद में पत्ता-पत्ता, कन-कन झूम उठा है
बिन ऋतु के उपवन का उपवन झूम उठा है
चेतन तो चेतन जड़ में भी उसका असर है
जब साक़ी डोला तो दर्पन झूम उठा है