91 से 100 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद 93 से 94 तक
(93)
कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहिं करूना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम।1।
नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हो।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों।2।
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।3।
भूप -सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्यो नर-नारी।
बसन पूरि, अरि-दरप दुरि करि, भूरि कृपा दनुजारी।4।
एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर।5।
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरूराज-बंध्ुा खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारून दुख भंजहु राम उदार।6।
(94)
काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो।1।
पतित-पुनीत दीनहित, असरन-सरन कहत श्रुति चारों।
हौं नहिं अधम, सभीत ,दीन? किधौं बेदन मृषा पुकारेा?।2।
खग- गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो।3।
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।
तौं हरि! रोष भरोस दोष गुन तेहिं भजते तजि गारो।4।
मसक बिरंचि बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारों।5।
नहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी, प्रभु नामहु पाप न जारो।6।