ख़ूबसूरत मोड़ / उदय कामत

 
ये भूली बिसरी बातें और यादें उस सफ़र की थी
था मुनफ़रिद मैं राह पर न चाह मुस्तक़र की थी
न ख़ौफ़ कोई रात का न आरज़ू सहर की थी
न धूप से कोई थकन न जुस्तजू शजर की थी
न पास रहनुमा मिरे न कोई मुन्तख़ब डगर
सुकूत से था मुतम’इन कमी ज़रूर थी मगर
दिखी मुझे वो अजनबी वो भीड़ से तज़ाद कुछ
न वक़्त ही थमा हुई न नब्ज़ इन्जिमाद कुछ
मिली मुझे वो दफ़अतन मगर कहाँ न याद कुछ
ये भी नही है याद थी उदास वो कि शाद कुछ
अदा में बे-तक़ल्लुफ़ी थी गुफ़्तगू में सादगी
मुकामले थे आम से नज़र में थी कुशादगी
न बात कोई वस्ल की न शौक़ की न इश्क़ की
न हिज्र की न दर्द की न सोज़ की न मश्क़ की
न बातों में कशाकशी विसाल में रवा-रवी
न धड़कनें हुई थीं तेज़ थी नहीं शिकस्तगी
कभी चुराए गीत हमने दिल-पज़ीर ख़्वाब से
कभी बजाये हमने साज़ ग़म भरे रुबाब से
कभी थे ख़ुश सवाल से, कभी थे ख़ुश जवाब से
न बातें इज़्तिराब की न जल गए अज़ाब से
न क़ुर्ब की तलब न जिस्म में तड़प हवस की थी
कि मिल गयी वो डोर आज बस नफ़स नफ़स की थी
असीर था नहीं यहाँ न गुफ़्तगू क़फ़स की थी
न ज़िक्र इख़्तियार का न बातें दस्तरस की थी
लगा हमें कि रास्ते का मोड़ था यही सही
वज़ाहतों को भूल कर रखें कहानी अन-कही
हँसी-ख़ुशी से एक साथ राह को बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी मै अपनी राह चल दिया

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