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"ख़ुद को रचता गया / नारायण सुर्वे" के अवतरणों में अंतर
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21:40, 9 दिसम्बर 2010 का अवतरण
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आकाश की मुद्रा पर अवलम्बित रहा नहीं मैं
किसी को भी सलाम करना कभी सम्भव नहीं हुआ, मुझे
पैगम्बर कई मिले, यह भी झूठ नहीं
ख़ुद को कभी हाथ जोड़ते देखा नहीं मैंने
घूमा मैं सभी में पर किसी को दीखा ही नहीं,
हम ऐसे कैसे ? ऐसा प्रश्न कभी ख़ुद से किया नहीं ।
झुण्ड बनाकर ब्रह्माण्ड में रंभाता घूमा नहीं
ख़ुद को ही रवता गया, यह आदत कभी गई नहीं।
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