"कारीगर (कवि चंद्रकांत देवताले के लिए) / प्रदीप मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें | चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें | ||
इतनी बड़ी कि उनमें | इतनी बड़ी कि उनमें | ||
− | घूमती हुई पृथ्वी | + | घूमती हुई पृथ्वी साफ़ दिखाई दे |
पसलियों के नीचे | पसलियों के नीचे | ||
प्रेम से लबालब हृदय में | प्रेम से लबालब हृदय में | ||
इतना स्नेह कि | इतना स्नेह कि | ||
− | घर पड़ोस के ईंट पत्थर भी | + | घर पड़ोस के ईंट-पत्थर भी |
उसके करीब बना रहना चाहें | उसके करीब बना रहना चाहें | ||
− | + | अख़बार की ख़बरों से चिंतित | |
उसका मन | उसका मन | ||
कोलम्बस की तरह भटक रहा है | कोलम्बस की तरह भटक रहा है | ||
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उसकी खुरदुरी हथेलियों पर | उसकी खुरदुरी हथेलियों पर | ||
नहीं बची है कोई रेखा | नहीं बची है कोई रेखा | ||
− | + | उँगलियों में लोहे की छड़ जैसी | |
− | + | ताक़त पैदा गई है | |
− | जब वह हथेलियों और | + | जब वह हथेलियों और उँगलियों को |
मुट्ठी की तरतीब में कर रहा होता है | मुट्ठी की तरतीब में कर रहा होता है | ||
उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर | उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर | ||
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किसी छरहरे पेड़ की तरह | किसी छरहरे पेड़ की तरह | ||
− | रखता है वह धरती पर | + | रखता है वह धरती पर पाँव |
अपने तलुओं को | अपने तलुओं को | ||
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ | जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 48: | ||
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं | पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं | ||
− | + | वह तराश रहा है | |
− | वह | + | काट-जोड़ रहा है |
− | काट- जोड़ रहा है | + | |
काम कर रहा है | काम कर रहा है | ||
लिख रहा है कविताऐं | लिख रहा है कविताऐं | ||
− | आधी शताब्दी से | + | आधी शताब्दी से निरन्तर । |
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21:42, 13 दिसम्बर 2010 का अवतरण
कवि चंद्रकांत देवताले के लिए
इतिहास की किताब की तरह
पुराना और ठोस चेहरा
चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें
इतनी बड़ी कि उनमें
घूमती हुई पृथ्वी साफ़ दिखाई दे
पसलियों के नीचे
प्रेम से लबालब हृदय में
इतना स्नेह कि
घर पड़ोस के ईंट-पत्थर भी
उसके करीब बना रहना चाहें
अख़बार की ख़बरों से चिंतित
उसका मन
कोलम्बस की तरह भटक रहा है
वह देखना और छूना चाहता है
ब्रह्माण्ड का चप्पा-चप्पा
उसकी खुरदुरी हथेलियों पर
नहीं बची है कोई रेखा
उँगलियों में लोहे की छड़ जैसी
ताक़त पैदा गई है
जब वह हथेलियों और उँगलियों को
मुट्ठी की तरतीब में कर रहा होता है
उस समय नृशंस सत्ता के माथे पर
पसीने छूटने लगते हैं
किसी छरहरे पेड़ की तरह
रखता है वह धरती पर पाँव
अपने तलुओं को
जड़ों की तरह प्रयोग करता हुआ
समय में प्रवेश करता है
किसी ठठेरे की तरह
सुधारता है समय के गढ्ढों को
वह एक कारीगर है
जिसके कानों पर
पेंसिल खोंसने के घट्टे पड़ चुके हैं
वह तराश रहा है
काट-जोड़ रहा है
काम कर रहा है
लिख रहा है कविताऐं
आधी शताब्दी से निरन्तर ।