"इस जगह का पता / प्रदीप मिश्र" के अवतरणों में अंतर
Pradeepmishra (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem>'''इस जगह का पता''' यहाँ से हर राह गुजरात की तरफ जा रही है कभी यहीं …) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | <poem> | + | {{KKGlobal}} |
− | + | {{KKRachna | |
+ | |रचनाकार=प्रदीप मिश्र | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
यहाँ से | यहाँ से | ||
− | हर राह गुजरात की | + | हर राह गुजरात की तरफ़ जा रही है |
− | कभी यहीं से सारी राहें मेरठ | + | कभी यहीं से सारी राहें मेरठ गईं थीं |
कभी अयोध्या | कभी अयोध्या | ||
तो कभी अलीगढ़ और मुरादाबाद | तो कभी अलीगढ़ और मुरादाबाद | ||
पंक्ति 11: | पंक्ति 16: | ||
यहाँ से | यहाँ से | ||
− | दिखाई देतीं हैं विशाल | + | दिखाई देतीं हैं विशाल रथयात्राएँ |
दिखाई देते हैं लोगों से खचाखच भरे मैदान | दिखाई देते हैं लोगों से खचाखच भरे मैदान | ||
दिखाई देते हैं ज्वालामुखियों पर बसे नगर और महानगर | दिखाई देते हैं ज्वालामुखियों पर बसे नगर और महानगर | ||
यहाँ से | यहाँ से | ||
सबकुछ दिखाई देता है साफ-साफ | सबकुछ दिखाई देता है साफ-साफ | ||
− | नहीं दिखता है तो | + | नहीं दिखता है तो सिर्फ़ अपना घर |
− | यहाँ पर एक | + | यहाँ पर एक क़ब्रगाह है |
− | जिसकी सारी कब्रें खुदी | + | जिसकी सारी कब्रें खुदी हुई हैं |
और हड्डियों को हवा बिखेर रही है इधर-उधर | और हड्डियों को हवा बिखेर रही है इधर-उधर | ||
यहाँ पर देश के चुने हुए | यहाँ पर देश के चुने हुए | ||
पंक्ति 25: | पंक्ति 30: | ||
बड़े-बड़े अखाड़े हैं | बड़े-बड़े अखाड़े हैं | ||
यहाँ पर राजा का दरबार है | यहाँ पर राजा का दरबार है | ||
− | जिसमें देश की | + | जिसमें देश की क़िस्मत का फ़ैसला होता है |
− | पिछले | + | पिछले फ़ैसले में गुजरात को मौत की सज़ा सुनाई गई थी |
इसबार किसी प्रदेश की बारी है या मुकम्मल देश की | इसबार किसी प्रदेश की बारी है या मुकम्मल देश की | ||
− | + | आँक रहे हैं पत्रकार | |
सबको पता है इस जगह का पता | सबको पता है इस जगह का पता | ||
पंक्ति 35: | पंक्ति 40: | ||
अब बस भी करो | अब बस भी करो | ||
हमें अपने घरों में चैन से रहने दो | हमें अपने घरों में चैन से रहने दो | ||
− | टहलने दो चाँदनी रात में | + | टहलने दो चाँदनी रात में बैखौफ़ । |
− | + | ||
− | + | ||
</poem> | </poem> |
21:44, 13 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
यहाँ से
हर राह गुजरात की तरफ़ जा रही है
कभी यहीं से सारी राहें मेरठ गईं थीं
कभी अयोध्या
तो कभी अलीगढ़ और मुरादाबाद
हर जगह जातीं हैं
यहाँ से राहें
कोई भी राह घर नहीं जाती
यहाँ से
दिखाई देतीं हैं विशाल रथयात्राएँ
दिखाई देते हैं लोगों से खचाखच भरे मैदान
दिखाई देते हैं ज्वालामुखियों पर बसे नगर और महानगर
यहाँ से
सबकुछ दिखाई देता है साफ-साफ
नहीं दिखता है तो सिर्फ़ अपना घर
यहाँ पर एक क़ब्रगाह है
जिसकी सारी कब्रें खुदी हुई हैं
और हड्डियों को हवा बिखेर रही है इधर-उधर
यहाँ पर देश के चुने हुए
विद्वानों, राजनितिज्ञों और समाजसेवकों के
बड़े-बड़े अखाड़े हैं
यहाँ पर राजा का दरबार है
जिसमें देश की क़िस्मत का फ़ैसला होता है
पिछले फ़ैसले में गुजरात को मौत की सज़ा सुनाई गई थी
इसबार किसी प्रदेश की बारी है या मुकम्मल देश की
आँक रहे हैं पत्रकार
सबको पता है इस जगह का पता
फिर भी इस पते पर कोई भी नहीं लिखता
एक लम्बी चिट्ठी कि
अब बस भी करो
हमें अपने घरों में चैन से रहने दो
टहलने दो चाँदनी रात में बैखौफ़ ।